________________
१५४
भी सेठिया जैन प्रग्यमाला
भी साठया जन साधु मुक्ति की लालसा वाले प्राणियों को मोक्ष योग्य अनुष्ठानों की साधना में सहायक होते हैं । इस प्रकार उक्त पाँचों पद मोच प्राप्ति के हेतु रूप हैं। इसलिये मैं उक्त पंच परमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ। (विशेषावश्यक भाष्य गाथा २६४२-२६४४)
अरहत णमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो होइ पुण बोहिलाभाए ॥४॥
भावार्थ-भाव पूर्वक किया हुआ अर्हन्नमस्कार प्रात्मा को अनन्त भवों से छुड़ाकर मुक्ति की प्राप्ति कराता है। यदि उसी भव में मुक्ति का लाभ न हो तो जन्मान्तर में यह नमस्कार चोधि यानी सम्यग्दर्शन का कारण होता है।
अरिहंत णमुक्कारो धण्णाण भवक्खयं कुणंताणं । हिययं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होई ॥५॥
भावार्थ-ज्ञानादि धन वाले तथा जीवन एवं पुनर्भव का क्षय करने वाले महात्माओं के हृदय में रहा हुआ यह अरिहन्त-नमस्कार दुर्यान का निवारण कर धर्मध्यान का आलम्बन रूप होता है।
अरिहंत णमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थुत्ति । । जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो॥६॥
भावार्थ-यह अहनमस्कार महान् अर्थ वाला कहा गया है। अन्य अक्षर वाले भी इस नमस्कार पद में द्वादशांगी का अर्थ रहा हुआ है । यही कारण है कि मृत्यु के समीप होने पर निरन्तर इसी का घार वार स्मरण किया जाता है । बड़ी आपत्ति आने पर भी द्वादशांगी के बदले इसी का स्मरण किया जाता है।
अरिहंत णमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो । - मगंलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥ ७ ॥ • भावार्थ-अहन्नमस्कार समी पापों का-कर्मों का नाश करने