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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला या लोग उसे छिपाते हों तो साधु को न कहनी चाहिये। निर्ग्रन्थ भगवान महावीर देव की यही आज्ञा है ।
(२७) साधु को होला (निष्ठुर अपमान सूचक शब्द), सखा एवं गोत्र के नाम से किसा को न बुलाना चाहिए। तिरस्कार प्रधान कारे के शब्द भी उसके मुंह से कभी न निकलने चाहिये। अप्रियकारी और भी कोई वचन साधु को कतई न कहना चाहिये।
(२८) साधु को कुशील अर्थात् कुत्सित आचार वाला न होना चाहिये । कुशील पुरुषों के संसर्ग में भी उसे न रहना चाहिये। कुशील संसर्ग से संयम का नाश करने वाले सुखरूप अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । विद्वान् मुनि कोइमसे होने वाली हानियों पर विचार कर इसका परित्याग करना चाहिये ।
(२६) वृद्धावस्था या रोगादिजनित आशक्ति के सिवाय साधु को गृहस्थ के घर न बैठना चाहिये। उसे गाँव के लड़कों का खेल न खेलना चाहिये एव साधुमर्यादा से बाहर हसना भी न चाहिये।
(३०) सुन्दर,मनोहर एवं प्रधान शब्दादि विषयों को देख कर या सुनकर साधु को उत्सुक न होना चाहिये । उसे भूल एवं उत्तरगुणों में यत्नशील रहते हुए संयम मार्ग में विचरना चाहिये । भिक्षाचर्या आदि में उसे सावधान रहना चाहिये एवं माहागदि सम्बन्धी गृद्धिभाव को दूर करना चाहिये । परीषह उपसर्गों के समुपस्थित होने पर वीरतापूर्वक उन्हें सहन करना चाहिये।
(३१) साधु को यदि कोई लाठी आदि से मारे तो उसे कुपित न होना चाहिये । दुर्वचन एव गाली सुन कर भी उसे प्रतिकूल वचन न कहना चाहिये । उसे अपना मन विकृत न करते हुए समभावपूर्वक बिना शोरगुल किये उपस्थित परीषहों को सहन करना चाहिये।
(३२) साधु को चाहिए कि वह प्राप्त कामभोगों को ग्रहण न करे और न तपोविशेष से प्राप्त लब्धियों का ही उपयोग करे । ऐसा,