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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग
के लिये संभव नहीं है फिर भी उसे अपनी इन्द्रियों को स्वच्छन्द न छोड़ देना चाहिये । इन्द्रियों की स्वच्छन्दता और उनके विषय में अत्यन्त श्रासक्ति रखना अनेक अनर्थों का मूल है। इसलिये गृहस्थ को इन्द्रियों की स्वच्छन्दता का निरोध करना चाहिये एवं शब्द यादि विषयों के उपभोग में संयम रखना चाहिये ।
इन पैंतीस गुणों से युक्त गृहस्थ धर्म पालन के योग्य होता है।
(योगशास्त्र प्रथम प्रकाश ४७ से ५६ श्लोक )
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छत्तीसवाँ बोल संग्रह
६८१ - सूयगडांग सूत्र के नवें धर्माध्ययन की छत्तीस गाथाएं
सूयगडांग सूत्र के नवम अध्ययन का नाम धर्माध्ययन है । इसमें लोकोत्तर धर्म का वर्णन है । इस अध्ययन में ३६ गाथाएं हैं । भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१) जीव हिंमा न करने का उपदेश देने वाले केवलज्ञानी भगवान् महावीरस्वामी ने कौन सा धर्म कहा है ? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में गुरु कहते हैं - राग द्वेष के विजेताओं का मायाप्रपंचरहित सरल धर्म जैसा है पैसा मैं तुम्हें कहता हूँ । ध्यान पूर्वक सुनो !
(२ - ३) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोक्कस (वर्णशंकर)ऐपिक (जीविका के लिये मृग हस्ती आदि तथा कन्द मूल फल आदि की और अन्य विपयसाधनों की गवेपणा करने वाले ), वैशिक (मायाप्रधान कला से निर्वाह करने वाले बनिये), शूद्र तथा अन्य नीच वर्ण के लोग, जो विविध प्रकार की विशेष हिंसकक्रियाओं से आजीविका करते हैं- ये सभी परिग्रह में गृद्ध हो रहे हैं और दूसरे जीवों के साथ वैर भाव बढ़ाते हैं । शब्द रूप आदि