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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला परिहार करना चाहिये । यह याद रखना चाहिये कि उत्सर्ग मार्ग के अनुसार ये क्रियाएं वर्जनीय हैं परन्तु विशेष परिस्थितियों में अपवाद रूप से इनमें से किसी का सेवन करना भी आवश्यक हो सकता है । उस समय द्रव्य क्षेत्र काल भाव को देख कर रत्नाधिक की आज्ञा से उनका सेवन करना सदोष नहीं कहा जा सकता। द्रव्य रूप से इनका सेवन करते हुए भी हृदय में रताधिक के प्रति बहुमान रहना ही चाहिये, उसमें किसी प्रकार कमी न होनी चाहिये। हृदय में विनय बहुमान न रखते हुए इन आशातनाओं का परिहार करना केवल द्रव्य विनय है। व्यवहार शुद्धि के सिवाय उसकी विशेष सार्थकता नहीं है । रत्नाधिक के प्रति विनय बहुमान रखकर इन आशातनाओं का परिहार करने से विनय और धर्म की यथार्थ आराधना होती है और सुमुनु अपने ध्येय के अधिकाधिक समीप पहुँचता है । तेतीस पाशातनाओं में यतना करने अर्थात् उनका परिहार करने का फल उत्तराध्ययन सूत्र के ३१वें अध्ययन में 'सेन अच्छइ मण्डले' (अर्थात् वह संसार में भ्रमण नहीं करता, मुक्त हो जाता है) बतलाया है । रताधिक के लिये हृदय में विनय बहुमान रखते हुए इन आशातनाओं का परिहार करने वाला ही इस फल को प्राप्त करता है । तेतीस पाशातनाएं इस प्रकार हैं:
(१) मार्ग में रत्नाधिक के आगे चलने से अाशातना होती है। (२) मार्ग में रत्नाधिक के बराबर चलने से आशातना होती है।
(३) मार्ग में रत्नाधिक के पीछे भी बहुत पास पास चलने से आशातना होती है।
(४-६) रत्नाधिक के आगे, वरावरी में तथा पीछे अति समीप खड़े होने से आशातना होती है।
(७-९) रत्नाधिक के धागे, परावरी में तथा पीछे प्रति समीप बैठने से अाशातना होती है।