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श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
३७.
नगर देवता प्रयुक्त ही होता है । शेष को देवकृत या स्वाभाविक दोनों प्रकार का माना है । देवकृत होने पर ये अस्वाध्याय रूप होते हैं । स्वाभाविक होने पर नहीं । पर इनका यह भेद मालूम करना कठिन हैं इसलिए सामान्य रूप से इन्हें अस्वाध्याय माना जाता है । इनके सिवाय चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, निर्घात और गुञ्जित भी देवता प्रयुक्त अस्वाध्याय के अन्तर्गत दिये हैं । देवताप्रयुक्त
स्वाध्यायों का वर्णन करते हुए चार सन्ध्या, चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदाओं को भी अखाध्याय रूप बतलाया है । व्युद्ग्रह जनित अस्वाध्याय में राजा और सेनापतियों के बीच होने वाले संग्राम, प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों की लड़ाई, मलयुद्ध तथा दो गांवों के तरुणों का पत्थर ढेले आदि से लड़ना, पारस्परिक कलह आदि को स्वाध्याय माना है । राजा, दखिडक, ग्राम के प्रधान, दुर्गपति, शय्यातर यादि की मृत्यु सम्बन्धी स्वाध्याय को भी व्युद्ग्रह के अन्तर्गत ही कहा है । उपाश्रय से सात घरों के अन्दर कोई व्यक्ति पर गया हो तो उसकी अस्खाध्याय रखने के लिए भी कहा है । यदि कोई अनाथ उपाश्रय से सौ हाथ के अन्दर भरा पड़ा हो तो भी स्वाध्याय के लिए निषेध किया है। शरीर सम्बन्धी यस्वाध्याय मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार के हैं । तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय के रक्त, मांस, अस्थि और चर्म- ये चारों यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो स्वाध्याय न करनी चाहिए | उपाश्रय से साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार दें, अण्डा गिर जाय, जरायुज और पोतज का प्रसव हो तो भी अखाध्याय रखने के लिए कहा है। मनुष्य के भी रक्त मांस चर्म और अस्थि यदि सौ हाथ के अन्दर हो तो स्वाध्याय का परिहार करने के लिए कहा है। श्मशान में स्वाध्याय करने के लिए मना किया है । बालक बालिका के
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