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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला
(२२) भिक्षा से निर्वाह करने वाला साधु भी यदि दुराचारी हो तो वह नरक से नहीं छूट सकता । चाहे भितु हो या गृहस्थ, जो व्रतों का निरतिचार पालन करता है वही स्वर्ग में उत्पन्न होता है।
(२३) गृहस्थ को चाहिये कि वह सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति रूप सामायिक एवं उसके अंगों का पालन करे तथा कृष्ण
और शुक्ल दोनों पक्षों में अष्टमी चतुर्दशी आदि तिथियों के दिन पौपध करे। यदि इन तिथियों में कभी दिन का पोपध न कर सके तो रात्रि में तो अवश्य ही करे। (२४) इस तरह व्रत पालन रूप प्रासेवन शिक्षा से युक्त सुव्रती श्रावक गृहस्थावास में रहते हुए भी इस ओदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है।
(२५) समस्त आश्रयों को रोक देने वाले भावभिक्षु की दो में से एक गति होती है। या तो वह समस्त दुःखों का नाश कर सिद्धि गति में जाता है या देवगति में महामृद्धिशाली देव होता है।
(२६) जहाँ वह देव होता है वहाँ का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-देवों के ये आवास बहुत ऊपर है. प्रधान हैं, मोहरहित है तथा देवों से व्याप्त हैं। यहाँ रहने वाले देव महायशस्वी होते हैं।
(२७) ये देव दीर्घ स्थिति वाले, दीप्ति वाले, समृद्धिचन्त तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाले होते हैं। अनेक सूर्यों के समान ये तेजस्वी होते हैं। इनके शरीर के वर्ण धुति आदि सदा जन्म समय के समान ही रहते हैं।
(२८) चाहे साधु हों या गृहस्थ हों, जिन्होंने उपशम द्वारा कपायाग्नि को शान्त कर दिया है तथा संयम और तप का आचरण किया है वे पुण्यात्मा उपरोक्त स्थानों में उत्पन्न होते हैं।
(२६) सच्चे पूजनीय, जितेन्द्रिय और संयमी पुरुषों को ऊपर वतलाये हए स्थानों की प्राप्ति होती है यह जानकर चारित्रशील बहुश्रुत महात्मा मरणान्त समय उद्वेग नहीं पाते ।