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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कारणों को लक्ष्य में रख कर शास्त्रकारों ने आगे कही जाने वाली बातों को अस्वाध्याय ठहराया है।
आचार्यों ने अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से होने वाले अपाय भी बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैंएए सामण्णयरे ऽसज्झाए, जो करेइ सज्झायं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तं चिराहणं पावे ॥ .
भावार्थ-अस्वाध्याय के इन प्रकारों में से जो किसी भी अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है वह तीर्थङ्कर की आज्ञा का भंग करता है और मिथ्यात्व तथा विराधना का भागी होता है । सुअणाणम्मि अभत्ती, लोअविरुद्ध पमत्त छलणा य । विज्जा साहण वइगुण्णं, धम्मया एवं मा कुणसु ॥
भावार्थ-अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की अभक्ति होती है, लोकविरुद्ध आचरण होता है। ऐसा करने वाला प्रमादी व्यक्ति देवता से भी छला जा सकता है। विद्या साधन में विपरीत आचरण करने से जैसे विद्या फलवती नहीं होती इसी प्रकार यहाँ भी स्वाध्याय का फल प्राप्त नहीं होता अर्थात् कर्मों की निर्जरा नहीं होती । इसलिये अस्वायाय में स्वाध्याय न करनी चाहिये। उम्मायं वा लभेजा, रोगायकं वा पाउणे दीहं । तित्थयरभासिआओ, भस्सइ सो संजमाओवा॥
भावार्थ-अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने से उन्माद हो जाता है, दीर्घकालस्थायी रोग आतंक हो जाते हैं और ऐसा करने वाला तीर्थङ्करोपदिष्ट संयम से गिर जाता है। इहलोए फलमेयं, परलोए फलं न दिति विज्जाओ। 'आसायणा सुयस्स उ, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥
भावार्थ-यह तो अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का इहलौकिक फल हुआ। इसका पारलौकिक फल यह है। इससे