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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग ४३ ६७०-सामायिक के बत्तीस दोष
मन के दस, वचन के दस और काया के बारह, इस प्रकार सामायिक के बत्तीस दोप है । मन और वचन के दोष इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं.७६४ और ७६५ में तथा काया के दोप इसी अन्य के चौथे भाग में बोलनं०७८६ में व्याख्यासहित दिये गये हैं। ६७१-बत्तीस विजय
जम्बूद्वीप में नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में और निपथ वर्षधर पर्वत के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र है इसके पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र है। महाविदेह क्षेत्र के मनुष्यों के देह की महती अवगाहना होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों की भवगाहना तीन कोश की एवं विजय क्षेत्रों के मनुष्यों की अवगाहना पाँच सौधनुप की होती है। इसलिये इस क्षेत्र को महाविदेह कहते हैं। अथवा यह क्षेत्र भरत आदि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक विस्तार वाला है इसलिये अथवा महाविदेह नामक देव द्वारा अधिष्ठित होने से यह महाविदेह कहा जाता है । इस के मध्य में सुमेरु पर्वत है । मुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह, पश्चिम में अपर विदेह, उत्तर में उत्तरकुरु एवं दक्षिण में देवकुरु है । देवकुरु और उत्तरकुरु युगलियों के क्षेत्र हैं। पूर्वविदह एवं अपरविदेह कर्मभूमि हैं । यहाँ तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, बासुदेव जन्म लेते हैं। सदा भरतक्षेत्र के चौथे बारे जैसी स्थिति रहती है किन्तु यहाँ छह आरे नहीं होते।
पूर्वविदेह सीता महानदी से दो भागों में विभक्त हो गया है। सीता के उत्तर में और नीलवन्त पर्वत के दक्षिण में पर्वत और नदी इस क्रम से चार पर्वत और तीन नदियों से विभक्त आठ विजय क्षेत्र हैं। इनके पश्चिम में माल्यवान् पर्वत और पूर्व में जम्बूद्वीप की जगती से लगता हुआ उत्तर सीतामुख बन है। सीता