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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २७ एक तोल) का परिमाण तथा पिशाच आदि में पाँचों प्रमाणों की प्रवृत्ति न होने पर भी उसका अस्तित्व सभी मानते हैं, इसलिए उपरोक्त हेतु अनेकान्तिक भी है। प्रमाण सिद्ध आत्मा में ही हेतु की प्रवृत्ति होने के कारण हेतु विरुद्ध भी है।। __आत्मा प्रत्यक्ष है, क्योंकि इसके गुण स्मृति जिज्ञासा (जानने की इच्छा) चिकीर्षा(करने की इच्छा) जिगमिषा (जानने की इच्छा) संशय आदि प्रत्यक्षं हैं। जिस वस्तु के गुण प्रत्यक्ष होते हैं वह वस्तु भी प्रत्यक्ष होती है, जैसे घट के गुण रूपादि प्रत्यक्ष होने से घट भी प्रत्यक्ष है। अगर गुणों के ग्रहण से गुणी का ग्रहण न माना जाय तो भी गुणों के ज्ञान से गुणवाले का अस्तित्व तो अवश्य सिद्ध हो जाता है। .
शङ्का-ज्ञान आदि गुणों से किसी गुणवाले की सिद्धि वो अवश्य होती है किन्तु वैगुण आत्मा के ही हैं, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे गोरापन, दुबलापन, मोटापन आदि बातें शरीर में मालूम पड़ती है उसी तरह ज्ञान, अनुभव आदि भी शरीर में मालूम पड़ते हैं, इसलिए इनको शरीर के ही गुण मानना चाहिए। __समाधान-ज्ञानादिगुण शरीर के नहीं हैं, क्योंकि शरीर मूर्त और चक्षु इन्द्रिय का विषय है। जैसे घट । ज्ञानादि गुण अमूर्त और अचानुप हैं। इसलिए उनका आश्रय गुणी भी अमूर्त और अचाक्षुप होना चाहिए । इस प्रकार का गुणी जीव ही है। ___ अपने शरीर में आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध है। दूसरे के शरीर में उसका ज्ञान अनुमान से होता है। वह अनुमान इस प्रकार है-दूसरे के शरीर में आत्मा है क्योंकि वह इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट से निवृत्ति करता है। जिस शरीर में प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है वह प्रात्मा वाला है जैसे अपना शरीर ।
'हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने के बाद