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ओ जैन सिद्धान्त बोक्ष साह, चौथा भाग २४७ आदि किसी वात की कमीन रहेगी । इस लिए आप वहीं पधारिए।
साधु उम सेवक के घर आए । साधुओं को देखते ही उसने मुंह फेर लिया। यह देख कर उनमें से एक साधु ने दूसरे साधुओं से कहा-यह वह श्रावक नहीं है, अथवा गाँव वालों ने हमारे साथ मजाक किया है।
साधु की बात सुन कर वह चकित होकर वोला-आप क्या कह रहे हैं ? साधुओं ने उसे सारा हाल सुना दिया। वह सोचने लगा-वे लोग मुझ से भी नीच हैं, जिन्होंने साधुओं के साथ मजाक किया ।अब अगर इन्हें स्थान न दिया तो मेरी भी सी होगी और इन साधुओं की भी । इस लिए बुरे लगने पर भी इन्हें ठहरा लेना चाहिए। यह सोच कर उसने साधुओं से कहा-विघ्न बाधा रहित इस स्थान में आप ठहर सकते हैं किन्तु मुझे धर्म की कोई वात मत कहिएगा। साधुओं ने इस बात को मंजूर कर लिया और चतुर्मास पीतने तक वहीं ठहर गए।
विहार के समय वह साधुओं को पहुँचाने आया। साधु बड़े ज्ञानी और परोपकारी थे। उन्होंने सोचा-इसने हमें ठहरने के लिए स्थान दिया इस लिए कोई ऐसी बात करनी चाहिए जिससे इस का जीवन सुधर जाय । यद्यपि वह मांस, मदिरा, परस्त्री आदि किसी पाप का त्याग नहीं कर सकता था फिर भी साधुओं ने ज्ञान द्वारा जान लिया कि यह सुलभवोधी है और भविष्य में प्रतिवोध प्राप्त करेगा! यह सोच कर उन्होंने उसे साप्तपदिक व्रत दिया और कहा जव किसी पञ्चेन्द्रिय जीव को मारो तो जितनी देर में सात कदम चला जाता है उतनी देर कर जाना । फिर तुम्हारी इच्छानुसार करना । सेवक ने वह व्रत ले लिया । साधु विहार कर गए ।
एक दिन वह सेवक पुरुषकहीं चोरी करने के लिए रवाना हुआ। मार्ग में अपशकुन दिखाई देने के कारण वह वापिस लौट आया