Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 470
________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला आचार्य का वचन सुन कर साध्वी कुपित हो गई। बिना हिचकिचाहट के शीघ्रता पूर्वक उसने उत्तर दिया- आचार्य ! दूसरे का राई जितना छिद्र भी तुम्हें ढीख जाता है । अपना पहाड़ जितना नहीं दीखता । स्वयं निर्दोष व्यक्ति ही दूसरे को उपदेश देना अच्छा लगता है। स्वयं दोप वाला दूसरे को उपदेश देने का अधिकारी नहीं होता । यदि तुम अपने को सच्चा श्रमण, त्रह्मचारी, पत्थर और सुवर्ण को समान समझने वाला, सदाचारी और उग्रविहारी समझते हो तो यहाँ आओ। दूर क्यों भागते हो। मुझे तुम्हारा पात्र देखने दो । ४७ साध्वी से इस प्रकार फटकार सुन कर वह चुप चाप आगे बढ़ा | उसी देव द्वारा विक्रिया की हुई सेना को देखा । भयभीत हो कर आचार्य सेना के मार्ग को छोड़ कर दूसरी तरफ जाने लगा । दुर्भाग्य से वह राजा के सामने पहुँच गया । श्राचार्य को देख कर राजा ने हाथी से उतर कर चन्दना की और कहा - मेरा अहोभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। भगवन् ! मेरे पास मोदक आदि प्रासुक और सर्वथा एपणीय आहार है। इसे ग्रहण करने की कृपा कीजिए । पात्र में रक्खे हुए आभूषण को छिपाने के उद्द ेश्य से आचार्य ने कहा- आज मैं हार नहीं करूँगा । भयभीत हो कर, छोड़ दो, छोड़ दो, कहने पर भी श्राचार्य को राजा ने नहीं छोड़ा। उनका पात्र पकड़ कर खींचना शुरू किया । श्राचार्य के नहीं छोड़ने पर राजा ने बलपूर्वक पात्र को छीन लिया और लड्डू डालने के लिए उसे खोला । 1 पात्र में आभूषणों को देख कर राजा बहुत कुपित हुआ । क्रोध से भौंहे चढ़ा कर भयंकर मुँह बनाते हुए उसने कहा- अरे पापी ! तूने मेरे पुत्रों को मार डाला । अन्यथा उनके आभूषण तुम्हारे पास कहाँ से याते ? अरे ! साधु का ढोंग रचनें वाले दुष्ट ! नीच ! १

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