Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 472
________________ 480 - श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अर्थात-दिव्य भोगों से प्रेम होने के कारण, विषय भोग में प्रसक्त होने से, देवलोक का कार्य समाप्त न होने से तथा मनुष्यों के अधीन न होने से देवता अशुचि मनुष्य लोक में नहीं आते / मनुष्य लोक की दुर्गन्ध पाँच सौ योजन ऊपर तक चारों तरफ फैलती है इस लिए भी देव यहाँ नहीं आते। इस प्रकार शास्त्रीय बातों को आप जानते हैं फिर भी मेरे न आने पर आपने कैसा काम कर डाला 1 दिव्य नाटक आदि देखने की उत्सुकता में बीतने वाले लम्बे समय का भी देवों को ज्ञान नहीं रहता / आपने भी उस नाटक को देखने में लीन हो कर ऊपर देखते हुए एक मुहूर्त के समान छ: मास विता दिए / क्या प्रलय आने पर भी क्षीर सागर कभी अपनी मर्यादा को छोड़ता है ? आप सरीखे आचार्य भी अगर इस प्रकार के अनुचित कार्य को करने लगेंगेतो संसार में दृढ़धर्मा कौन होगा।महामुने! अपने दुराचरण की आलोयणा करके कर्मों का नाश करने वाले चारित्र का पालन कीजिए / देवता की वाणी सुन कर मुनि को प्रति बोध हो गया। उसने अपने दुराचार की चार बार निन्दाकी / प्राचार्य आय पाढ ने पार वार देव से कहा- वत्स ! तुमने बहुत अच्छा किया तुम बड़े बुद्धिमान हो जो इस प्रकार मुझे बोध दे दिया / मैं अपने अशुभ कर्मों के उदय से नरक के मार्ग की ओर जा रहा था / तुमने मोक्ष मार्ग में डाल दिया / इस लिए तुम मेरे भाव बन्धु हो / मैं धर्म से गिर गया था। फिर धर्म दे कर तुमने मुझ पर जो उपकार किया है उससे कभी उऋण नहीं हो सकूँगा। देव की इस प्रकार प्रशंसा करके आचार्य अपने स्थान पर चले गए। पापों के लिए आलोयणा, प्रतिक्रमण करके उग्रतप करने लगे / देव ने भी आचार्य को नमस्कार किया, अपने अपराध के

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