________________
-
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग वजनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान का श्रायुष्य पूर्ण करके मरुदेवी के गर्भ में आया। उसी रात्रि में मरुदेवी ने चौदह महास्वप्न देखे। यथा-धुपम (बैल), हाथी, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, महायज, कलश, पद्मसरोवर, क्षीर समुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि । इन स्वमों को देख कर मरुदेवी तत्काल जाग उठी। अपने देखे हुए स्वप्नों का चिन्तन कर हर्षित होती हुई रानी मरुदेवी अपने पति महाराजा नामि के पास गई और उन्हें अपने देखे हुए महास्वप्न सुनाए । स्वप्नों को सुन कर नामि राजा को बहुत प्रसन्नता हुई । उन्होंने कहा-हे भद्रे! इन महास्वप्नों के प्रभाव से तुम एक महाभाग्यवान पुत्र को जन्म दोगी। इस पात को सुन कर महारानी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। यत्नपूर्वक वह अपने गर्म का पालन करने लगी। नौमास और साढे सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि में उत्तरापाढा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर महारानी मरुदेवी ने त्रिलोक पूज्य पुत्र को जन्म दिया। तोङ्कर का जन्म हुआ जान कर छप्पन दिककुमारियाँ और दक्षिणार्द्ध लोक के स्वामी सौधर्मपति शक्रन्द्र माता मरुदेवी की सेवा में उपस्थित हुए। मेरु पर्वत परले जाकर चौंसठ इन्द्रों ने भगवान का जन्म कल्याण किया।
भगवान् ऋषभदेव द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ने लगे, यौवन वय होने पर उस समय की पद्धति के अनुसार सुमंगला नामक कन्या के साथ ऋषभ कुमार का सांसारिक सम्बन्ध हुा । समय की विषमता के कारण एक युगल (पुत्र कन्या के जोड़े) में से पुरुष की अल्पवय में ही मृत्यु होगई । उस असहाय कुंवारी कन्या का विवाह ऋपमकुमार के साथ कर दिया गया। यहीं से विवाह पद्धति प्रारम्भ हुई । दोनों पनियों के साथ ऋषमकुमार श्रानन्द