Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 429
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ४३३ किसी मुनि का उपचार करके पुण्य का उपार्जन किया । अन्तिम अवस्था में दीक्षा अङ्गीकार करके श्रमण पर्याय में उन्होंने देवलोक का आयुष्य वॉधा । काल करके सभी सामानिक देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से चच कर अभयघोष का जीव जम्बूद्वीप के पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी में वहाँ के राजा वजूसेन की रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। केशव को छोड़ कर दूसरे भी वाहु, सुवाहु, पीठ और महापीठ के नाम से वजूसेन के पुत्र रूप से उत्पन्न होकर माण्डलिक राजा बने । वजूसेन ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली । जिस समय वजूनाम को चक्ररत्न की प्राप्ति हुई उसी समय उन्होंने केवलज्ञानी होकर धर्मतीर्थ को प्रवर्ताया। केशव का जीव वजूनाम चक्रवर्ती का सारथि वना । काल क्रम से वजूनाम चक्रवर्ती ने अपने चारों भाइओं और सारथि के साथ अपने पिता भगवान् वज्रसेन तीर्थक्कर के पास दीक्षा ले ली। उन में से वजनाम चौदह पूर्वघर और दूसरे साथी ग्यारह पूर्वधारी हुए । लम्बे समय तक दीक्षा पाल कर समाधिमरण द्वारा वे सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । वहाँ तेतीस सागरोपम की स्थिति प्राप्त की। स्थिति पूरी होने पर पहले वजूनाम का जीव नामि कुलकर के पुत्र रूप से उत्पन हुआ । बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ के जीव क्रमशः भरत, बाहुबलि, ब्राह्मी और सुन्दरी रूप से उत्पन्न हुए । सारथि का जीव मैं श्रेयांसकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ। मैंने पूर्वभव में भगवान् वजूसेन नामक तीर्थङ्कर को देखा है। उन के पास सुना भी था कि वजूनाम का जीव भरत क्षेत्र में तीर्थपुर होगा। उनके पास दीक्षित होने के कारण मैं दान आदि की विधि को जानता हूँ। केवल इतने दिन मुझे-पूर्वभव का स्मरण नहीं था। आज भगवान् को देखने से जातिस्मरण हो गया। पूर्वभव की सारी बातें प्रकट हो गई। इसी लिए आज भगवान् का पारणा विधि

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