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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
हम लोग सत्य आदि मुख्य शौच का सेवन करते हैं फिर पवित्र कैसे हैं? वस्त्र और शरीर मैला होने से हमें अशुचि कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जीव पापकर्मों से ही मैला होता है, शरीर और वस्त्रों से नहीं। कहा भी है
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मलमहल पंकसइला, धूलीमइला ए ते परा महला । जे पावकम्ममइला, ते मइला जावलोयम्मि ॥ अर्थात्- मैल, कीचड़ या धूलि के कारण जो लोग मैले कहे जाते हैं वे वास्तव में मैले नहीं हैं। जो पाप कर्मों के कारण मैले हैं वे ही वास्तव में मैले हैं । इत्यादि वचनों के द्वारा यज्ञदेव निरुत्तर हो गया । भाव न होने पर भी शास्त्रार्थ की प्रतिज्ञा के अनुसार वह उनका शिष्य हो गया । शास्त्रार्थ को समाप्त करके सुव्रत मुनि अपने स्थान पर चले आए। आचार्य को बन्दना करके यज्ञदेव को दीक्षा दिला दी। स्वीकार की हुई बात का पालन करना वीर पुरुषों का धर्म है, यह सोच कर उसने भी द्रव्य दीक्षा अंगीकार कर ली । कहा भी है
छिज्जउ सीसं अह होउ बघणं वयउ सव्वहा लच्छी पडिवण्ण पालणेसुं पुरिसाए जं होइ तं होउ ॥ अर्थात्-सिर कट जाय, बन्धन में फंसमा पड़े, सारा धन चला जाय, स्वीकार की हुई बात के पालन करने में महापुरुषों को बड़े से बड़ा कष्ट उठाना पड़े तब भी वे उसे नहीं छोड़ते ।
कुछ दिनों बाद शङ्का समाधान करता हुआ यज्ञदेव भाव से भी साधु हो गया किन्तु उसके मन से दुर्गुछा दूर न हुई। धीरे धीरे श्रावक भी उसे काफी मानने लगे।
एक दिन उसकी स्त्री ने मोहवश किसी वस्तु को वशीकरण द्वारा मन्त्रित करके भोजन के समय उसे बहरा दिया। अज्ञानवश उसने उसे खा लिया और फिर विचार में पड़ गया । व्रतलोप के
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