Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 454
________________ કર श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला की प्रशंसा करते हुए कहा -सुभाषित है । राजा ने एक सौ आठ दोनारे पारितोषिक में दे दीं। प्रतिदिन वह इसी प्रकार देने लगा । सडाल ने सोचा- इस प्रकार तो खजाना खाली हो जाएगा। इस लिए कोई उपाय करना चाहिए। एक दिन उसने राजा से कहा- महाराज ! आप इस प्रकार क्यों देते हैं ! राजा ने उत्तर दिया- तुम प्रशंसा करते हो, इस लिए मैं देता हूँ । स्यडाल ने कहा - लोक में प्रचलित काव्यों को वह अच्छी तरह पढ़ता है, मैंने तो यही कहा था । राजा ने पूछा- यह कैसे कहते हो कि लोक में प्रचलित काव्यों को पढ़ता है ? यह तो अपने बनाये हुए काव्यों को सुनाता है । सयडाल ने उत्तर दिया- मेरी लड़कियाँ भी इन्हें सुना सकती हैं, फिर दूसरों का तो कहना ही क्या ? सयडाल के सात कन्याएं थीं- यक्षिणी, यक्षदत्ता, भूतिनी, भूतदत्ता, सेना, रेखा और वेणा । उसमें पहली को सौ श्लोक एक ही बार सुनने पर याद हो जाते थे। दूसरी ́ को दो बार सुनने पर, तीसरी को तीन बार सुनने पर, इसी प्रकार सातवीं को सात बार सुनने पर याद हो जाते थे ! राजा को विश्वास दिलाने के लिए सथडाल ने उन्हें समझा कर परदे के पीछे छिपा कर बैठा दिया । वररुचि ने चाकर एक सौ आठ श्लोक पढ़े । कन्याओं ने उन्हें सुन लिया । वररुचि ने कहा- महाराज ! यदि आपकी आज्ञा हो तो अपनी पुत्रियों को बुलाऊँ । वे भी इन श्लोकों को सुना सकती हैं। राजा की आज्ञा से मन्त्री ने पहिले यक्षिणी को बुलवाया और कहा बेटी ! वररुचि ने इस प्रकार के एक सौ आठ श्लोक राजा को सुनाए हैं। क्या तुम भी उनको जानती हो ? यदि जानती हो तो

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