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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला नहीं है, क्योंकि प्रध्वंसाभाव पुद्गल और सत् रूप ही है।
मोन को कृतक मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा और कमपुद्गलों का अलग अलग होना ही मोक्ष है। तप और संयम के द्वारा कर्मों का नाश हो जाने पर वियोग स्वयं हो जाता है। आत्मा अपने आप शुद्ध और निर्मल बन जाता है। इस लिए मोक्ष कृतक । अर्थात किया जाने वाला नहीं है। जिस प्रकार मुग्दर द्वारा घट का नाश होने पर आकाश का कुछ नहीं होता इसी प्रकार तप और संयम द्वारा कर्मों का नाश होने पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को. प्राप्त हो जाता है उसमें कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती।
शङ्का-जीव निर्जरा द्वारा जिन कर्म पुद्गलों को छोड़ता है वे लोक में ही रहते हैं, लोक के बाहर नहीं जाते। जीव भी लोक में ही रहते हैं, तो उनका फिर सम्बन्ध क्यों नहीं होता?
समाधान-मुक्त जीव को फिर वन्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें बन्ध के कारण नहीं हैं। जैसे विना अपराध का पुरुष। कर्मवन्ध योग और कषायों के कारण से होता है और वे मुक्त आत्मा के नहीं है, इसलिए उनके कर्मबन्ध नहीं होता । जिस बीज में अंकुर पैदा करने की शक्ति नष्ट हो गई है, उससे फिर अंकुर पैदा नहीं होता । इसी प्रकार जिस आत्मा में कर्मवन्ध का वीज नष्ट हो गया है, उसमें फिर कर्मबन्ध नहीं होता। कर्मवन्ध का मूल कारण कर्म ही है। इसलिए एक वार कर्म नष्ट हो जाने पर फिर कर्मबन्ध नहीं होता इसी कारण से मुक्त आत्माओं की संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती।
शङ्का-जीव की गति कर्मों के अनुसार ही होती है । मुक्त आत्माओं के पाठों कर्म शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, फिर उन की ऊर्ध्वगति कैसे होगी? .
समाधान-मुक्त आत्मा कर्मों का बन्धन छूटते ही ऊपर की ओर गमन करते हैं। उनकी एक समय की गति होती है। कर्मों