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श्री जैन सिद्धान्न बोलसंप्रह, चौथा भाग १७६
बत्तीसवाँ शतक (१-२८)उ०-चचीसवें शतक के उद्देशे हैं। इकतीसवें शतक में क्षुद्र कृतयुग्म नरयिकों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इस पचीसवें शतक में नैरयिकों की उद्वर्तना की अपेक्षा से २८ उद्देशे कहे गये हैं। क्षुद्रकृतयुग्म आदि जीव नरक से निकल कर कहाँ जाते हैं, एक समय में कितने जीव निकलते हैं, इत्यादि बातों का कथन किया गया है।
तेतीसवाँ शतक तेतीसवें शतक में एकेन्द्रिय जीवों का वर्णन है । इस शतक के अन्तर्गत बारह शतक है ।प्रत्येक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्देशे हैं। इस प्रकार इस तेतीसवें शतक में कुल १३२ उद्देशे हैं।
प्रथम शतक (१-११)उ०--एकेन्द्रिय के पृथ्वीकाय काय आदि पाँच मेद, पृथ्वीकाय के सूक्ष्म, पादर, पर्याम और अपर्याप्त चार मेद हैं। इनको ज्ञानावरणीयादि पाठों ही कर्मों का बन्ध होता है और वेदन भी होता है। इस प्रकार पहले उद्देशे में सामान्य रूप से कथन किया गया है। दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक क्रमश अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न अनन्तरवगाई परम्परावगाढ़ अनन्तराहारक परम्पराहारक अनन्तर पर्याप्तक परम्परा पर्यातक चरम और अचरम की अपेक्षा से एकेन्द्रिय का कथन किया गया है और उनमें एकेन्द्रिय जीवों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध और वेदन का वर्णन किया गया है।
दूसरे शतक में कृष्णलेश्या चाले एकेन्द्रिय की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक के भेद से उपरोक रीति से ग्यारह उद्देशे कहे गये हैं। इसी प्रकार तीसरे शतक में नील लेश्या वाले एकेन्द्रिय, चौथे शतक में कापोतलेश्या वाले एकेन्द्रिय, पाँचवें शतक में भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, छठे शवक, कृष्णलेश्या वाले भव