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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
जाते हैं । कर्मों को जीव अपने सभी प्रदेशों से ग्रहण करता है।
उपशमश्रेणी से गिरा हुआ जीव सादि मोहनीय आदि कर्मों को बाँधता है। जिस जीव ने किसी श्रेणी को नहीं प्राप्त किया है उसके कर्म अनादि होते हैं।
जिस प्रकार एक सरीखा होने पर भी गाय के द्वारा खाया हुआ आहार दूध के रूप में परिणत हो जाता है, और साँप के द्वारा खाया हुआ विष के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार ग्रहण करने से पहले कर्मपुद्गल एक सरीखे होते हैं। शुभयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों के वे पुण्यरूप में परिणत हो जाते हैं और अशुभयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों के पापरूप में । अथवा जैसे एक ही शरीर में ग्रहण किया हुआ थाहार रक्त मांस आदि धातु तथा मल मूत्र
आदि निःसार पदार्थों के रूप में परिणत हो जाता है इसी प्रकार कर्मपुद्गल भी शुभ और अशुभ रूप में परिणत होते हैं। कर्मों की ४६ प्रकृतियाँ शुभ है, बाकी अशुभ हैं। सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुपवेद और रति ये चार प्रकृतियाँ किसी के मत से पुण्य में नहीं गिनी जाती,ऐसी दशा में पुण्य प्रकृतियाँ ४२ ही रह जाती हैं। इन्हें पुण्य में गिनने से पुण्य प्रकृतियाँ ४६ हैं। .
इस प्रकार पुण्य और पाप को मिला कर एक ही वस्तु मानने वाला पक्ष भी खण्डित हो गया, क्योंकि सुख और दुःख दोनों वस्तुएं भिन्न भिन्न हैं, इस से उनके कारण भी भिन्न भिन्न मानने पड़ेंगे। ___ इस प्रकार समझाए जाने पर अचलाता द्विजोपाध्याय का संशय दूर हो गया। वे भगवान महावीर के शिष्य हो गए और नवें गणधर कहलाए।
'(गा १९०५-१८४८) (१०) मेतार्यस्खामी-दर्शनार्थ आए हुए मेतार्यखामी को देख कर भगवान ने कहा-आयुष्मन् मेतार्य! तुम्हारे मन में यह संदेह