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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग
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वस्तुओं का अविनाभाव (एक दूसरे के बिना न रहना) निश्चित हो जाने के बाद किसी दूसरी जगह एक को देख कर दूसरी का ज्ञान अनुमान से होता है। आत्मा का प्रत्यक्ष न होने के कारण उसका श्रविनाभाव किसी वस्तु के साथ निश्चित नहीं किया जा सकता।
आगम से भी आत्मा की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि उसी महापुरुष के वाक्य को श्रागम रूप से प्रमाण माना जा सकता है जिसने श्रात्मा को प्रत्यक्ष देखा है । श्रात्मा प्रत्यक्ष का विषय नहीं है इस लिए उसके अस्तित्व को बताने वाला आगम भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि अलग अलग मतों के आगम भिन्न भिन्न प्ररूपणा करते हैं। कुछ आत्मा के अस्तित्व को बताते हैं और कुछ अभाव को । ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक आगम ही प्रमाण है ।
उपमान या श्रर्थापत्ति प्रमाण से भी श्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि इन दोनों की प्रवृत्ति भी प्रत्यक्ष द्वारा जाने हुए पदार्थ में ही हो सकती है।
उत्तर पक्ष
हे गौतम! आत्मा तुम्हें भी प्रत्यक्ष ही है। तुम्हेंजो संशयरूप ज्ञान हो रहा है, वह श्रात्मा ही है । उपयोग ही आत्मा का स्वरूप है। इसी • प्रकार अपने शरीर में होने वाले सुख दुःख यादि का ज्ञान स्वसंवेदी (अपने आपको जानने वाला) होने के कारण आत्मा को प्रत्यक्ष करता है। प्रत्यक्ष से सिद्ध वस्तु के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । 'मैंने किया, मैं करता हूँ, मैं करूंगा। मैंने कहा, मैं कहता हॅ, मैं कहूँगा । मैंने जाना, मैं जानता हूँ, मैं जानू गा इत्यादि तीनों कालों को विषय करने वाले ज्ञानों में भी 'मैं' शब्द से श्रात्मा का ही बोध होता है। इस प्रत्यक्ष ज्ञान से भी आत्मा की सिद्धि होती है । अगर 'मैं' शब्द से शरीर को लिया जाय तो मृत शरीर में
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