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तथा मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख सहित होता है। अर्थात् श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में संकेत-स्मरण, शब्द शक्ति ग्रहण, श्रुत ग्रन्थ का पठन श्रवण एवं अनुसरण अपेक्षित है। अवधिज्ञान
इन्द्रियों की सहायता के बिना ही जिस ज्ञान से मर्यादा पूर्वक रूपीपदार्थों को जाना जा सके - उसे अवधिज्ञान कहते हैं। अवधि ज्ञान दो प्रकार का होता है - भव प्रत्यय तथा गुण प्रत्यय।मन: पर्याय ज्ञान
जिससे संजी, पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जा सके वह मन: पर्याय ज्ञान या मन:पर्यय ज्ञान कहलाता है। विशिष्ट निर्मल आत्मा जब मन द्वारा किसी प्रकार की विचारणा करता है अथवा किसी प्रकार का चिन्तन करता है तब चिन्तन प्रवर्तक मानस वर्गणा के विशिष्ट आकारों की रचना होती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के ऐसे मन के पर्यायों के ज्ञान को मन:पर्यायज्ञान कहते हैं।
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केवलज्ञान
ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मों के सर्वांशत: नष्ट होने पर Tजो एक निर्मल परिपूर्ण, असाधारण तथा अनन्त ज्ञान प्रगट होता
8| है, उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। B88888888888888888888888888888888888888
@ । अठारह ।