Book Title: Jain Siddhant Kaumudi
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 20
________________ 888888888888888888 मूलतः सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं १. मतिज्ञान ३. अवधिज्ञान ५. केवलज्ञान २. श्रुतज्ञान ४. मनः पर्ययज्ञान ३६४४ ज्ञान; पदार्थों का बोध है । अत: जिससे हम तत्त्वार्थ निर्णय प्राप्त करते हैं, उसे ज्ञान कहते हैं । जो ज्ञान आत्मा को मोक्षमार्ग के लिए सम्प्रेरित करता है । वह सम्यग् ज्ञान कहलाता है । एतद् विपरीत ज्ञान मिथ्याज्ञान या असत्यज्ञान कहलाता है। जैन दर्शन में प्रतिपादित सम्यग् ज्ञान के पाँच भेदों के स्वरूप विशद रीति से इस प्रकार समझे जा सकते हैं मतिज्ञान पञ्च ज्ञानेन्द्रियों तथा मन से प्राप्त होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । यह चार प्रकार से होता है - अवग्रह से, हा से, अवाय से और धारणा से । कभी घ्राणेन्द्रिय से; कभी चक्षुरिन्द्रिय से, कभी श्रोत्रेन्द्रिय से तथा कभी मन से होता है। इस कारण इसके चौबीस (४x६=२४) भेद होते हैं। श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् चिन्तन मनन के द्वारा जो परिपक्व ज्ञान होता है, वह 'श्रुतज्ञान' कहलाता है। श्रुतज्ञान इन्द्रियजन्य 8888888888888888888888888888888 • सतरह

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