Book Title: Jain Siddhant Kaumudi
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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करुणावरुणालय! कर्मततौ, पतितं परिपालय पालय भोः।
हतबुद्धिबलंबहुतापितकं जनतारण! तारय भक्तममम ॥
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दुरितौघभरैः परिपूर्ण जनः, वितनोति यदा तव पादनतिम्। परिशुद्धमुपैति कथा प्रथिता, जनतारण! तारय भक्तममुम् ॥,
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जनप्रिय-जिनेशस्य, पचकं भक्तिसंयुतम्। प्रोक्तं सूरिसुशीलेन, कर्मणां मलशुद्धये ॥
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श्रीजैनसिद्धान्तकौमुदी : १२२

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