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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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(ब) पत्नी के कर्तव्यः
प्रत्येक पत्नी सच्चे अर्थों में नारी है, विवाहोपरान्त नर से संबद्ध होकर वह नारी कहलाती है, अतः सधवा स्त्रियों को प्रथम स्थान प्राप्त है। ऋग्वेद के अनुसार नारी के सौभाग्य का अर्थ है पति का निरोग जीवन। पत्नी की दो कामनाएं होती हैं:"आयुष्यमानस्तु पति" मेरा पति दीर्घायु हो, "एधन्तां ज्ञातयो मम" अर्थात् मेरी जाति की अभिवद्धि हो। विवाहित नारी की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह पति के प्रति एकनिष्ठता का भाव अचल रूप में रखे। नैतिक शैथिल्य पत्नी के लिए निंदा का विषय माना गया । पति परायणा होने के साथ ही वह सास-ससुर की सेवा करे, घर समाज की पुष्टि भी करे, प्राणिमात्र के हित के लिए कामना करे। वह कोमल व्यवहारी हो तथा उसकी दष्टि में भी क्रोध न झलके।
ऋग्वेद में उल्लेख है कि अधिक संतान होने से जीवन कष्टमय हो जाता है। वैदिक काल में सामान्यतः दस संतति का आधान मिलता है, जो कदाचित् सुरक्षा के कारणों से रहा होगा। भाग्यशालीनी वह स्त्री मानी जाती थी, जिसके शरीर में अनेक संततियों को जन्म देने पर भी कोई विकार न आये। पुत्र पुत्री समान समझे जाते थे, तथापि पुत्र संतति से स्त्री की प्रशंसा है" ऐसा उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है, इसके पीछे भी सुरक्षा-क्षमता के विकास की आवश्यकता का कारण प्रमुख रहा होगा। (क) वैवाहिक विधान और नारी:
वेदों के काल में विवाह संस्था बड़े व्यवस्थित रूप में थी। ऋग्वेद में बाल विवाह के प्रचलन के साक्ष्य नही मिलते । पर्याप्त यौवन अवस्था प्राप्त होने पर विवाह किया जाता था। ऋग्वेद में सामान्यतः एकल विवाह का ही विधान था। बह विवाह का प्रचलन नगण्य-सा था। विवाह तीन प्रकार के होते थे। प्रथम क्षत्रिय (राक्षस) विवाह जो वर द्वारा अपहृत कन्या के साथ होता था। इसमें शक्ति और पराक्रम का आधार रहता था, कन्या की सहमति भी संदिग्ध रहा करती थी। दूसरा था स्वयंवर विवाह, जिसमें कन्या स्वयं अपने लिए वर का चयन कर सके यह भी गौरव पूर्ण विवाह संस्कार था। तीसरा-प्रजापत्य या ब्रह्म विवाह; जिसमें दाम्पत्य जीवन की पावनता का स्पर्श भी था, इसके शास्त्रीय विधिविधान भी थे, और यह आध्यात्मिक संबंधों पर आधारित था। यही पुण्य विवाह माना जाता था। प्रजापत्य विवाह के लिए माता-पिता की अनुमति की अपेक्षा रहा करती थी। वर-वधू इसे सहर्ष स्वीकार करते थे, तथा अपने लिए श्रेयस्कर मानते थे। कन्या के लिये उपयुक्त और श्रेष्ठ वर निश्चित करने में माता-पिता को भी सुख और संतोष मिलता था। विध्वा विवाह को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। सती प्रथा का सामान्तया प्रचलन नहीं था, किंतु जो स्त्रियां स्वेच्छा से इस विकल्प को स्वीकार करती थी, वह समाज में सम्मान के भाव से देखी जाती थी। वेदों के काल में पर्दा-फाश रंच मात्र भी नहीं था। अपने गह में महिलाएं उन्मुक्त भाव से रहा करती थी। जब घर से बाहर निकलती तो ऊपरी-परिधान का प्रयोग अवश्य करती थीं, चादर जैसे अतिरिक्त वस्त्र से अपना तन आवत्त कर लिया करती थीं। इसमें नारी सुलभ लज्जा की उपस्थिति तथा सभ्यतापूर्ण व्यवहार झलकता है। इस सलज्जता को नारी की एक अनिवार्य मर्यादा के रूप में समाज भी मानता था और स्वयं नारी वर्ग भी। जहां सभ्सता व सलज्जता उनके शोभन, तथा अलंकार होकर उनके सौंदर्य को सच्चा रूप देते और बढ़ाते थे, वहीं प्रासंगिक मर्यादाओं से उनकी गरिमा भी बढ़ती थी। ऋग्वेद में निर्दिष्ट किया गया है कि स्त्री को इस प्रकार रहना चाहिए कि पर-पुरुष उसके रूप को देखते हुए भी नहीं देख सके, उसकी वाणी को सुनते हुए भी नहीं सुन सके। पुरुषों की सभा में बैठना, पुरुषों के सम्मुख भोजन करना शास्त्रों में वर्जित माना गया था। वेद का आदेश है "हे साध्वी नारी! तुम नीचे को देखा करो, ऊपर न देखो। पैरों को परस्पर मिलाकर रखो। वस्त्र इस प्रकार पहनो कि तुम्हारे ओष्ठ तथा कटि के नीचे के भाग पर किसी की दष्टि न पड़े। यह लज्जावनत्ता सतीत्व धारण में पत्नियों के लिए सहायक और प्रेरक मानी गई थी।
स्त्रियों की आभूषणप्रियता उस युग मे प्रायः उनकी सहज वत्ति मानी गई है। वेदों में इस वत्ति को मान्य समझा गया कि "स्त्रियों को मस्तक पर आभूषण धारण करना चाहिए, उसे शयन विदग्धा होना चाहिए, सदा निरोग अंजन एवं स्निग्ध पदार्थों से भूषित रहना चाहिए। सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्रों का उपयोग किया जाता था, जो सुन्दर रंग-बिरंगे, बेल-बूटों से अलंकृत होते थे। वस्त्र बुनना ओर उन्हें अलंकृत करना, स्त्रियाँ इन कामों में भी रूचि लिया करती थी। स्त्रियाँ प्रतिदिन की जिंदगी में प्रायः श्वेत वस्त्र ही धारण किया करती थी। उत्सवादि अवसरों पर ही रंगीन परिधान प्रयुक्त होते थे। ऋग्वेद और अथर्ववेद में विवाह पद्धति
स्थापना मिल चुकी थी। मंत्र ब्राह्मण में उन बिन्दुओं का विस्तत वर्णन प्राप्त होता है। विवाह के पश्चात् लाजाहोम
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