Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 9
________________ HERA PLURE :--: - - HINDI -abrdatehind ANSanelines SAMA auth Aut . प्राद्यमिताक्षर 'साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की सांस्कृतिक निधियाँ साहित्य के माध्यम से सुरक्षित रहती हैं। जैसे बड़ी-बड़ी कोठियों वाले धनिक वर्ग मकानों में उद्यान व लॉन रखते हैं, उसी प्रकार जातियों का इतिहास साहित्य के सुरभित-कानन रखता है। प्राचीन भारत में प्राज-जैसी प्रशस्त मुद्रण कला नहीं थी। किन्तु तब लोगों का मन साहित्य-मय था। उस समय के टिकाऊ ताड़पत्र पर मोती को लजाने वाले अक्षरों में जो ग्रंथ मिलते हैं, वे माज के युग पर उपहास करते हैं और अपनी दुर्दशा पर अश्रु वहाते हैं। घर-घर में ग्रंथों के बंडल रखे हैं, किन्तु अपने पूर्वजों से संरक्षित उन ग्रन्थों को आज की नई पीढ़ी कहाँ देखती है ? अपने ही घरों में उनका अविनय किया जा रहा है। जो भक्ति से पाले गये, मूल्य देकर लिपिकागे से लिखवाये गये, जिनसे परिवार ने पूजा के छन्द सीखे-प्राज वे ही पराये लगने लगे। पूर्वज तो लिखकर चले गये; किन्तु ये आदर्श ग्रन्थ अभी जीवित हैं। कितने समाज के लोग ग्रन्थ रक्षा के उपाय-चिन्तन में अपना तन-मन और धन लगा या लगवा रहे हैं ? कोई उनमें सुवर्ण बनाने की विधि ढूढता है तो कोई किसी जरा-व्याधि विनाशक रसायन की प्रक्रिया खोजता है। यदि प्राज के लोगों की अपेक्षित वस्तु उनमें नहीं मिलती तो वे उन हस्तलिखित हेय लगने वाले, पैबन्द वेष्टनों में छिपे ताड़पत्र के ग्रन्थों को महत्त्व देने से इन्कार करते थकते नही । इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए, तभी साहित्य की एवं प्राचीन ग्रन्थों की रक्षा सम्भव हो सकेगी। स्वाध्याय में रुचि लेना, प्रात्म-रस उत्पन्न करना भी इस दिशा में सहायक है। आदर्श ग्रन्थ-रत्नों के प्रति प्रादर भावना से प्राचीन-साहित्य क्षीण और लोप होने से बचाया जा सकता है।

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