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जैन परंपरा में श्रीष्कृण साहित्य
पर्वत से द्वारिका के मार्ग तक पड़ने वाले अनेक प्राकृतिक दृश्यों का सजीव वर्णन कवि ने किया है। स्वर्ण रेखा नदी व उसके तट, वामनपुरी, भद्रानदी तथा पौर नामक नगर का भी उल्लेख कवि ने किया है। इसके बाद गंधमादन वेणुल पर्वत से द्वारका पहुंचने का अनुरोध किया गया। नेमिकुमार राजीमती का अनुरोध स्वीकार नहीं करते। तब सखी राजीमती की विरहावस्था का करुण चित्र प्रस्तुत करके नेमिकुमार को लौटाने का प्रयास करती है। अंत में नेमिकुमार दयाभाव से राजीमती को धर्मोपदेश देते हैं। राजीमती भी साध्वी बन जाती है । वृद्ध ब्राह्मण के दूतरूप में प्रेषित करने से संभवतः इस कृति का नाम नेमिदूत रखा गया हो। डॉ० फतेहसिंह के मतानुसार नेमी ने राजीमती को पत्नी रूप में भले ही ग्रहण न किया हो पर उसे आनंदपथ की संगिनी के रूप में ग्रहण करने का निश्चय अवश्य किया था। सचमुच यह दूतकर्म बड़ा विचित्र रहा। संभवतः इसीलिए प्रेमी जी ने इसका नाम नेमिचरित रखा होगा।
समीक्षा
कवि ने सखी के द्वारा राजीमती के विरह वेदना की मानसिक अवस्था का चित्रण, नायिका के शील और लज्जा का सुंदर ढंग से रक्षण करते हुए करवाया है। पतिपरायणा साध्वी राजीमती ने अपने वक्तव्य द्वारा कभी भी अपने आराध्य के समीप मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है। काव्य में विप्रलंभ श्रृंगार और शांतरस का अद्भुत संगम हुआ है। राजीमती के विरह से काव्य आरंभ होता है और शांतरस की मोक्ष सौख्य की प्राप्ति में काव्य का अंत होता है। इसलिए काव्य विरह-सुखांत है। कुमारसंभव के नायक की तरह नेमिनाथ योगासक्त होकर पर्वत शिखर पर बैठे हैं, और नायिका उनकी अभिलाषा से वियोगव्यथित होकर, सम्मुख खडी होकर प्रेम की याचना करती है। वह कर्तव्य का नायक को ध्यान दिलाती है। सौंदर्य, वैभव व आकर्षण का वर्णन करती है। अंत में पार्वती के समान निराश होकर सखी के मुख से अपनी पवित्र प्रेम विरह वेदना को सजीवता से कहलाती है।
राजीमती को स्वप्न में भी प्रियमिलन नहीं हुआ है। कवि ने राजीमती की विरह वेदना और करुणदशा का चित्रण ८० से १२१ पद्यों में किया ८६. साहित्य और सौंदर्य, संस्कृतिसदन कोटा, ले० डॉ० फतेहसिंह, पृ० ६६
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