Book Title: Jain Sahitya me Shrikrishna Charit
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 298
________________ २८० जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य भागवत में राधा नहीं है इन सारे उल्लेखों एवं वर्णनों के बावजूद एक गंभीर प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि फिर श्रीमद्भागवत में राधा का उल्लेख क्यों नहीं हुआ ? इस ग्रन्थरत्न में श्रीकृष्ण का प्रामाणिक एवं सविस्तार वर्णन हुआ है। ऐसे ग्रन्थ में राधाकृष्ण चित्रण न होना, राधा के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह अंकित नहीं कर देता, बल्कि उसकी संदिग्धता को रेखांकित भी कर देता है । श्रीमद्भागवत में राधा की अनुपस्थिति से यह अनुमान स्वस्थ व सुदृढ़ बन जाता है कि राधा की प्राचीनता मान्य नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह भी स्पष्टतः आभासित होता है कि संभवतः राधा एक काल्पनिक पात्र है और इसकी कल्पना ईसा. पूर्व की कदापि नहीं है । एक प्रयोजन विशेष है कि केवल हठात् इसकी कल्पना प्रतीक रूप में कर ली गयी है। इस बात का वजन ज्यों-ज्यों समस्या पर विचार किया जाए त्यों-त्यों बढता चला जाता है । क्या राधा आभीर बाला है ? राधा की ऐतिहासिकता का प्रश्न कुछ ऐसा महत्वपूर्ण रहा है कि इस पर प्रत्येक युग में अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से चितन, मनन और अध्ययन किया है। सर रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का मत भी विचारणीय है । डा. भण्डारकर भी राधा की प्रावीनता को अस्वीकार करते हुए आती मान्यता को इस आश्रय के साथ व्यक्त करते हैं कि गोपाल, गोर और गोपियों की भांति राधा का संबंध भी उस विदेशी आभीर जाति से था जो आवजित होकर भारत में आयी और यहीं बस गयी । आर्यों के साथ उनका संपर्क धीरे-धीरे बढ़ने लगा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने लगा। तभी उनकी राधा विषयक कया कुग कया में सम्मिलित हो गयी। उक्त मान्यता के विवेचन में जो महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है वह यह नहीं है कि क्या राधा आभीर बाला थी? यह तो सर्व स्वीकार्य हो भी सकता है, किंतु प्रश्न तो यह है कि क्या आभीर जाति विदेशी थी? इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि आभीर जाति विदेशी नहीं थी, और न ही इतिहास के किसी काल में वह भारत में आवजित हुयी । पुराणकाल से भी पूर्व उनकी भारतीय जनता में सम्मिलित धारणा के प्रमाण अनेक उल्लेखों से मिलते हैं। डा. मुन्शीराम शर्मा का कथन है कि- ''इस देश के किसी भी साहित्यिक ग्रन्थ में आभीरों को बाहर से आया हुआ नहीं कहा गया है।"1 विष्णुपुराण में आभीर वंश का उल्लेख है, वायुपुराण में इस जाति की विस्तृत वंशावली भी दी गयी है, आभीर स्वयं अपने आपको यदुवंशी आहुक की संतति मानते हैं। १. भारतीय साधना और सूर साहित्य, ले० डा० मुन्शीराम शर्मा, पृ० १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316