Book Title: Jain Sahitya me Shrikrishna Charit
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ २८४ जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य इसमें एक सत्याभास की प्रतीति होने लगी। राधा एक प्रतीक है जो इस रूप में प्रतिष्ठित हो गयी है। राजीमति : एक विरहिणी जैन वीतरागी रस को श्राविका और उच्चतम आध्यात्मिक धरातल का उज्ज्वल एवं देदीप्यमान चरित्र-अरिष्टनेमि की पूर्वभव की साथिन और पत्नी राजीमति अपने पूर्व भवों में रत्नवती और चित्रगति, अपराजित और प्रीतिमति के रूप में पति-पत्नी थे । आचार्य जिनसेन के अनुसार अपराजित अनुतरविमान में बाईस सागर की स्थिति वाला अहमिन्द्र देव बना । वही महाराजा समुद्रविजय की पत्नी शिवादेवी की कोख से अरिष्टनेमि के रूप में पैदा हुआ : यशोमती का जीव राजा उग्रसेन की कन्या राजीमती के रूप में पैदा हुई। ___ जब वह बड़ी हुई तो एक बार श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि से कहा-'कुमार ऋषभ आदि अनेक तीर्थकर भी गृहस्थाश्रम में दीक्षित हुए थे। उन्होंने गृहस्थाश्रम का भोग किया था और परिणत वय में दीक्षित हुए थे। उन्होंने भी मोक्ष प्राप्त कर लिया था। तुम भी ऐसा ही करो।" नियति की प्रबलता जानकर अरिष्टनेमि ने उनकी बात स्वीकार की। श्रीकृष्ण ने भोजकुल के राजा उग्रसेन से राजीमती की याचना अरिष्टनेमि के लिए की। वह सर्व लक्षणों से संपन्न, विद्युत् और सौदामिनी के समान दीप्तिमान राजकन्या थी। राजीमती के पिता उग्रसन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और श्रीकृष्ण से कहा, यदि कुमार यहाँ आयें तो मैं अपनी राजकन्या उन्हें ब्याह दूं। विवाहपूर्व तैयारी ___बात तय हुई। विवाह के पूर्व समस्त कार्य सम्पन्न हुए। मंगलदीप जलाए गये । विवाह का दिन भी आया । बाजे बजाये गये। खुशी के गीत गाये जाने लगे। राजीमती अलंकृत हुई। पर होनी कुछ और ही थी। राजीमती ने देखा बारात आ रही है। दिव्य आभूषण पहने हुए, दिव्य वस्त्र परिधान किये हुए, मदोन्मत्त गधहस्ती पर आरूढ़ होकर दशाह चक्र से चारों ओर घिरे हुए चतुरंगिणी सेना के साथ वे अरिष्टनेमि आ रहे हैं। राजीमती ने अपने भावी पति को देखा । वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। उस युग में क्षत्रियों में मांसाहार का प्रचलन था। उग्रसेन ने बारातियों के भोजनार्थ सैकड़ों पशु-पक्षी एकत्रित किए थे। उनका करुण क्रन्दन अरिष्टनेमि ने सुना । भगवान ने पूछताछ की। सारथी ने बताया कि ये सारे १. हरिवंशपुराण-३४:१५०; पृ० ४४० आचार्य जिनसेन । २. अहसा सायरकन्ना सुसीला चारु-पेहिणी। सव्वलक्खण संपन्ना, विज्जु सोदामणिप्पभा ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316