Book Title: Jain Sahitya me Shrikrishna Charit
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 278
________________ २६० जैन-परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य अनिवार्यता को देखते हुए अवतारवाद सहायक सिद्ध होने लगा। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने भी "महाकवि सूरदास में इसी तर्क को अवतारवाद के आधार रूप में मान्यता दी है। रामायण काल तक इस अवतारवाद को प्रतिष्ठा मिलने लगी थी। अवतारवाद ___'ब्रह्म का अवतार मानव धर्म के रक्षणार्थ, दुष्टों के दलनार्थ एवं भक्तों के रंजनार्थ होता है' ऐसा स्वीकार किया जाने लगा और अवतारवाद का विकास होने लगा। स्वयं गीता के अनुसार ही ईश्वर अजर और अमर है और अपनी इस अंतहीनता को माया से संकुचित कर वह शरीर धारण कर लोक में अवतरित होता है। ईश्वर का इस प्रकार मानव रूप में अवतरित होना, मानव शरीर धारण कर जन्म लेना ही अवतार की परिकल्पना का बुनियादी और सीधा-सादा तात्पर्य है। मनुष्य तो कभी ईश्वर नहीं बन सकता, किंतु ईश्वर अवश्य ही मनुष्य बन सकता है। और, इस अवतरण का प्रयोजन जगत में व्याप्त अधर्मान्धकार का विनाशन धर्म लोक का प्रसारण करना है । साधुओं की रक्षा करना और दुष्टों का विनाश कर धर्म की पुनः स्थापना करना अवतारवाद की भूमिका है यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थान-मधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दृष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय, संभवामि युगे-युगे ।।" पृथ्वी के दुःख से दुःखी होकर देवताओं और ब्रह्मा जी ने पृथ्वी का भार उतारने की प्रार्थना भगवान विष्णु से की। भगवान विष्णु ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की और पृथ्वी पर मानव रूप में जन्मे । राक्षसों का नाश करने के लिए भगवान विष्णु ने देवको-वासुदेव के यहां भी कृष्ण रूप में जन्म लिया। महाभारत के आदिपर्व ६३/६८ के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि वैदिक परंपरा में श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार हैं। लोक-संग्रह एवं लोक-रंजन के रूप के लिए विष्णु ने श्रीकृष्ण रूप में शरीर धारण किया और श्रीकृष्ण व्यापक लोकमंगल के लक्ष्य की पूर्ति ही करते रहे। ४. महाकवि सूरदास-आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी । ५. श्रीमद् भगवद् गीता। ६. महाभारत-आदि पर्व ६३/६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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