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जैन-परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य तार नहीं माना जाता। उनकी महानता, उनकी साधना की उपलब्धि उनकी अजित संपदा है। अवतारों की भांति बिना उपक्रम के ईश्वर से वह उनमें उतर आयी हो-ऐसा नहीं है। यह महानता मनुष्य के आंतरिक शक्तियों के विकास का परिणाम है, वह किसी की अनुकंपा का नही । अतः तीर्थकर की महानता आत्माधारित है । 'मनुष्य स्वयं ही अपना कल्याण कर सकता है' यह संदेश देने वाली जैन परंपरा किसी भी स्थिति में अवतारवाद की समर्थक नहीं हो सकती। वह मनुष्य को अपने कल्याण के लिए किसी अवतार पर आश्रित रहने के भ्रम में ग्रस्त नहीं करती।
जैन परंपरा में श्रीकृष्ण को अवतार मानने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । वे शक्तिशाली हैं, शीलवान हैं, सुन्दर हैं, दुष्कर्मियों के संहारक और सज्जनों के त्राता भी हैं। त्रिखण्डेश्वर और गरिमामय हैं किंतु हैं वे मनुष्य । ईश्वर के अंश रूप में भी श्रीकृष्ण को जैन परंपरा ने स्वीकार नहीं किया है। इस रूप में उनके किसी दिव्य और अलौकिक व्यवहार को भी मान्य नहीं किया गया है। वैदिक और जैन परंपरा में श्रीकृष्ण के स्वरूप संबंधी यह असमानता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक परंपरा में जहां वे अवतार हैं वहां जैन परंपरानुसार वे श्लाधनीय पुरुष, मनुष्य मात्र हैं। उनमें कोई अलौकिकता या दिव्यता नहीं। उनका उत्कर्ष इतना ही है, जितना मानव-सुलभ स्वाभाविक और आत्मप्रयास-जन्य रूप में प्रत्येक मनुष्य के लिए संभव है। वे अपने समय के वासुदेव थे-बस इतना ही। जैन श्रीकृष्ण कथा का उपयोग जैन दर्शनों व मतों के साधन के रूप में जैन साहित्यकारों ने अपनाया जो पर्याप्त रूप से सफल रहा । जैन श्रीकृष्ण कथा द्वारा जैन धर्म के मूल तत्त्वों और आदर्शों का अनुमोदन और पुष्टि हो सके इसीलिए उसे इस रूप में ढालना आवश्यक था । कम-से-कम उसका विपरीत रूप तो श्रीकृष्ण कथा में ग्राह्य हो ही नहीं सकता था। जैन धर्म के आदर्शानुरूप ही श्रीकृष्ण को जैन कथा में अवतार नहीं स्वीकार किया गया है। जैन कथाओं के माध्यम से श्रीकृष्ण का जो स्वरूप उभरता है वह अवतारी पुरुष का न होकर पराक्रमी और शक्तिशाली राजा का रूप है । वे द्वारका सहित समस्त दक्षिण भारत के भूपति थे, एक मात्र अधिपति थे, राजाओं में सर्वाग्र पूज्य थे । पृथ्वी पर वे देवराज इन्द्र की भांति सुशोभित थे। वे कंस, शिशुपाल, जरासंध जैसे शक्तिशाली किंतु अन्यायी और अनाचारी शासकों के संहारक और अत्यधिक धर्मानुरागी थे। ईश्वर के अवतार नहीं थे। जैन परंपरा में उनका वासुदेवत्व ही प्रतिष्ठित हुआ है।
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