Book Title: Jain Sahitya me Shrikrishna Charit
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 277
________________ २५६ तुलनात्मक निष्कर्ष, तथ्य एवं उपसंहार जाता है कि ईसा पूर्व ७वीं शती में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी। भागवत धर्म के मूल प्रवर्तक नारायण थे किंतु कालांतर में नारायण और वासुदेव को अभिन्न माना जाने लगा। महाभारत में एक स्थल पर उल्लेख किया गया है कि सात्वत धर्म या भागवत धर्म का उपदेश सर्वप्रथम वासुदेव श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया। इससे स्पष्ट होता है कि भागवत धर्म प्रवर्तक श्रीकृष्ण और वासुदेव एक ही हैं, ये दोनों एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। हां, भाण्डारकर ने अवश्य ही यह मान्यता दी है कि ये दोनों पृथक्पथक व्यक्ति रहे, जो आगे चलकर एक दूसरे के रूप में देखे-जाने लग गये। उनकी मान्यता तो यह भी है कि भागवत धर्म में स्वीकृत श्रीकृष्ण की विविधता को लिया हुआ जो स्वरूप है, वह किसी एक ही व्यक्ति का नहीं अपितु श्रीकृष्ण नामधारी एकाधिक व्यक्तियों के गुणों का सम्मिलित रूप हैं, किंतु इस मत में कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता। श्रीकृष्ण एक ही है और उन्हीं का व्यक्तित्व भागवत में चित्रित हुआ है। इस प्रसंग पर "गीता रहस्य" में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी अपना निष्कर्ष इस प्रकार प्रकट किया है-"हमारे मत में श्रीकृष्ण चार-पांच नहीं हए, वे केवल एक ही ऐतिहासिक महापुरुष थे। भांडारकर की इस धारणा पीछे तिलक ने कल्पना तत्त्व का आधार ही माना है, कोई ठोस और प्रामाणिक आधार नहीं। इतना निश्चित हो गया है कि वैदिक परंपरा में नारायण द्वारा प्रवर्तित भागवत धर्म का प्रतिपादन करने वाले श्रीकृष्ण और वासुदेव दो भिन्न व्यक्ति नहीं अपितु वे एक ही एवं अभिन्न हैं । नारायण अथवा विष्णु के अवतार ही वासुदेव कृष्ण हैं। ये ही श्रीकृष्ण नारायण या विष्णु के अवतार रूप में पृथ्वीतल पर उत्पन्न हुए। भागवत धर्म को लोक-जीवन के अधिक निकट लाने की आवश्यकता के कारण ही इस अवतारवाद का अस्तित्व बना। धर्म के कोरे दर्शन के रूप से निकालकर जन आस्था का विषय बनाना आवश्यक था और ब्रह्म के निराकार रूप को आकार देता अनिवार्य समझा जाने लगा था। इसके लिए परिचय-सामीप्य की १. डा, भाण्डारकर (वैष्णविज्म एण्ड शैविज्म) तथा हेमचंद्रराय चौधरी (अलि हिस्ट्री ऑफ वैष्णव सेक्ट) ने पाणिनी के इस सूत्र को तदर्थ आधार माना है - वासुदेवार्जुनाभ्यां वनं २. महाभारत : शान्तिपर्व ३. गीतारहस्य : लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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