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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
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विजय ने कहा कि कंस अत्याचारी था । उसने कृष्ण के भाइयों का वध किया है । कंस का संहार कर श्रीकृष्ण ने उचित ही किया है । वे निर्दोष हैं 188 पर, सोमक का मंतव्य था - श्रीकृष्ण-बलराम ही नहीं, वसुदेव भी अपराधी हैं, जिन्होंने वचनबद्धता का निर्वाह न कर अपने सातवें पुत्र को गुप्त रख लिया । उसने कहा— जरासंध महाराज के आदेश का पालन तुम्हारा कर्त्तव्य है । पिता पर किये गये आक्षेप ने श्रीकृष्ण को क्रुद्ध कर दिया । वे बोले—कंस के साथी होने से जरासंध भी हमारा शत्रु है । 87 उसने हमसे स्नेह-सम्बन्ध तोड़ लिया है । स्नेह वश ही तो हम उसका आदेश माना करते थे । श्रीकृष्ण को कुलांगार कहने पर सोमक को अनाधृष्टि ने भी खरी-खोटी सुनायी । लज्जित हो वह लौट गया । जरासंध की ओर से भावी आपदाओं की कल्पना से समुद्रविजय चिंतित हो गये । उन्होंने निमित्तज्ञ क्रोष्टुकी से इस नये वैमनस्य का परिणाम पूछा । 89 संकेत मिला कि युद्ध होगा और श्रीकृष्ण व बलराम द्वारा जरासंध वध होगा और उसके स्थान पर स्वयं श्रीकृष्ण ही त्रिखंडेश्वर होंगे। उसने परामर्श दिया कि यादवों को मथुरा त्याग कर पश्चिम की ओर प्रस्थान करना चाहिए और समुद्र तट पर नया नगर स्थापित करना चाहिए। यात्रारंभ के साथ ही शत्रु पक्ष का क्षय भी आरंभ होगा । मार्ग में सत्यभामा जहां दो पुत्रों को जन्म दे, वही स्थान निरापद होगा, वहीं नगर बसा लेना उचित रहेगा । " परामर्शानुसार समुद्रविजय ने पश्चिम की ओर सदल-बल प्रस्थान किया । उग्रसेन भी साथ हो लिये । ११ कुल कोटि यादवजन मथुरा से समुद्रविजय के साथ निकल पड़े । शौरियपुर से सात कोटि यादव और उनके साथ हो गये । विशाल यादव समूह विध्याचल की ओर अग्रसर हुआ । 2
८६. त्रिषष्टि : ८/५/३४४-३४७
८७. (क) वही - ( ख ) भवभावना : २५११
८८. त्रिषष्टि: ८ / ५ / ३५७
८६.
वही - ८ / ५ / ३५८-२५६
१० (क) — वही - ८ / ५ / ३६० - ६२ (ख) भवभावना २५२० - २५२४
६१. हरिवंशपुराण में यह सारा प्रसंग अन्य ही प्रकार से वर्णित मिलता है । कंस वध की 'सूचना ज्यों ही जीवयशा से जरासंध को मिली उसने यादवों को मारने के लिए अपने पुत्र कालवन को मथुरा भेजा । उसत १७ बार यादवों से युद्ध किया और अंत में अतुल मालावत पर्वत पर वह मारा गया। तब जरासंध ने अपने भाई अपराजित को भेजा । उसने यादवों के साथ २४६ बार युद्ध किया और
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