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जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य
नगर आगरा उत्तम थानु, शाहजहां साहि दिए मनु भानु ( ३-८ 1 )
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कई स्थानों पर इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं । 48 इस रचना की १२ से २६ संधियों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित हुआ है । प्रथम संधि में २४ तीर्थकरों की व सरस्वती माता की वंदना है । दूसरी, तीसरी संधि में त्रैलोक्य वंदन, चौथी संधि में तीर्थकर ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत का चरित्र वर्णन है । ५ से ११ तक की संधियों में २१ तीर्थंकरों, १२ चक्रवर्ती, ८ बलदेव, ८ वासुदेव और ८ प्रतिवासुदेवों का संक्षिप्त चरित्र है । इसके बाद संपूर्ण कृति में २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि और नवम वासुदेव कृष्ण चरित्र का विस्तार पूर्वक वर्णन हुआ है । साथ ही कृष्ण के लघुभ्राता गजसुकुमाल तथा पुत्र प्रद्युम्न कुमार का वर्णन भी अवांतर प्रसंगों में आया है । भाषा राजस्थानी से प्रभावित व्रज है । दोहा, चौपाई छंदों में रचित इस रचना में कृष्ण के वीरत्व को अधिक उभारा गया है ।
कंस की मल्ल - शाला में कृष्ण-पराक्रम का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है :
चडून मल्ल उठ्यो काल समान, वज्रमुष्टि देयत समार । जानि कृष्ण दोनों कर गहे, फेर पाई धरती परु चहे ||१|| 44 रुक्मिणी हरण के प्रसंग में कृष्ण जब पांचजन्य शंख फूकते हैं तो संपूर्ण धरामंडल थरथरा उठा व शत्रुगण कंपित हो उठे45 - लई रुक्मिणी रथ चढ़ाई: पंचाइण तब पूरीयो । निसुनि वयणु सब सेन कंप्यो महिमण्डल थरहरीयो । मेरु कमठ तथा शेष कंप्या महलो जाइ पुकारियो । पुहुमि राहु अवधारियो, रुक्मिणी हरि ले गयो ॥२॥
इस प्रकार युद्ध का कवि ने बड़ा उत्कृष्ट वर्णन कर काव्यकृति में चमत्कार भर दिया है। साथ ही जरासंध युद्ध में भी यह वीरत्व साकार हो उठा है । जो चक्र जरासंध का कृष्ण के ऊपर वार करने के लिये उठा था
४३. हरिवंशपुराण (एक प्रतिलिपि), श्री पल्लीवाल दिगंबर जैन मंदिर, धुलियागंज, आगरा, प्रतिलिपिकाल संवत् १८०८ है । दूसरी प्रति आमेर शास्त्र भांडार, जयपुर — प्रतिलिपि संवत् १७५६ है ।
४४. शालिवाहन कृत हरिवंशपुराण (हस्तलिखित आगरा प्रति, पत्र ४५ / १७८०-८१ ४५. वही - - पत्र ५२ / १६५३ ।
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