Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 13
________________ अंक १, योगदर्शन' वर्गतक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है । जो योग उपनिषदोंमें सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित है, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाई गई है। उसमें योगकी तान कभी कर्मके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी शानके साथ सुनाई देती है1। उसके छठे और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है2 | कृष्णके द्वारा अर्जुनको गतिाके रूपमें योगशिक्षा दिला कर ही महाभारत सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसके अथक स्वरको देखते हुए कहना पडता है कि ऐसा होना संभव भी न था । अत एव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्वमें योगविषयक अनेक सर्ग वर्तमान हैं, जिनमें योगकी अथेति प्रक्रियाका वर्णन पुनरुक्तिकी परवा न करके किया गया है। उसमें बाणशय्यापर लेटे हुए भीष्मसे बार बार पूछनेमें न तो युधिष्ठिरको ही कंटाला आता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजाको शिक्षा देनेमें भीष्मको ही थकावट मालूम होती है। योगवाशिष्ठका विस्तृत महल तो योगकी ही भूमिकापर खडा किया गया है । उसके छह4 प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गये हैं । योगकी जो जो बातें योगदर्शनमें संक्षेपमें कही गई हैं, उन्हींका विविधरूपमें विस्तार करके ग्रन्थकारने योगवाशिष्ठका कलेवर बहुत बढा दिया है, जिससे यही कहना पडता है कि योगवाशिष्ठ योगका ग्रन्थराज है।। पुराणमें सिर्फ पुराणशिरामीण भागवतको ही देखिये, उसमें योगका सुमधुर पद्योंमे पूरा वर्णन है । योगविषयक विविध साहित्यसे लोगोंकी साचि इतनी परिमार्जित हो गई थी कि तान्त्रिक संप्रदायवालोंने भी तन्त्रग्रन्थों में योगको जगह दी, यहां तक कि योग तन्त्रका एक खासा अंग बन गया। अनेक तान्त्रिक ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा है, पर उन सबमें महानिर्वाणतन्त्र, पट्रचक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं। 1 गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, बीचके छह अध्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं। 2 योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥ १०॥ शुची देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ तत्रैकामं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं खं दिशश्चानवलोकया॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः |१४|| अ०६ 3 शान्तिपर्व १९३, २१७, २४६, २५४, इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६, २४६ इत्यादि । 4 वैराग्य, मुमुक्षुन्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण | 5 स्कन्ध ३ अध्याय २८; स्कन्ध ११अ० १५, १९, २० आदि। 6 देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो षट्चक्रनिरूपणऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं पोगविशारदाः। शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्ति परे विदुः ॥ पृष्ट ८२ Tantrik Texts में छपा हुआ । समत्वभावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ९१,, यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यदू ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ॥ पृ० ९० त्रिकोणं तस्यान्तः स्फूरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ।। पृ. ६०, "आहारनिहर्हारविहारयोगाः सुसंवता धर्मविदा तु कार्याः। पृ.६१.. ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्त्वेन निश्चला । एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुणं निर्गुणं द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ पृ० १३४,,

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