Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अंक १] ज्ञान और योगका संबन्ध तथा योगका दरजा - - व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका शान तभी परिपक्क समझा जा सकता है जब कि ज्ञानानुसार आचरण किया जाय । असलमें यह आचरण ही योग है । अत एव ज्ञान योगका कारणं है । परन्तु योगके पूर्ववर्ति जो ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता है 1 । और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्व होता है । इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक्क ज्ञानकी एक मात्र कुंजी योग ही है । आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाण में पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा शानी वही है जो योगी है 2 । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवाशिष्ठकी परिभाषामें ज्ञानवन्धु है 3 | योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयोंमें टकराती हैं, और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियोंको केन्द्रस्थ करेनेके लिये योग ही परम साधन है । योदर्शन [ ५ 1 व्यावहारिक और पारमार्थिक योग —— योगका कलेवर एकाग्रता है, उसकी आत्मा अहंत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ अहंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्ति - चाहे वह दुनियाकी दृष्टिमें बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो - वर्तमान हो तो पारमार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोग में कही गई है 4 | I योग की दोधारायें - व्यवहारमें किसी भी वस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है । जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है । चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका, उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है । तभी वह चित्र तैयार कर पाता है । वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिज्ञासुके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका, तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है । एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है । इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि " ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " । योग क्रियामार्गका नाम है । इस मार्ग में प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयोंका आरंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है । यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है । प्रर्वतक ज्ञान प्राथमिक दशाका ज्ञान होनेसे सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता । इसीसे योगमार्गमें तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्विक भिन्नता न होने पर भी योगमा -- , 1 इसी अभिप्राय गीता योगिको ज्ञानीसे अधिक कहती है। गीता अ. ६ श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ! ॥ 2 गीता अ. ५ श्लोक ५--- यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ 3 योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्ध, सर्ग २१ व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने शानबन्धुः स उच्यते ॥ आत्मज्ञानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टं चेष्टंते ते स्मृता शानबन्धवः ॥ इत्यादि । 4 अ. २ श्लोक ४ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय ! | सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 127