Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 88
________________ nawwwwwwwww १७ जैन साहित्य संशोधक पोतानी टीकामां ज आपलां छे; पण ते स्वोपन टीका उपलब्ध नथी। तेथी हरिभद्र, शीलांक अने हेमचन्द्र-के जमणे ए स्वोपज्ञ टीकानो पोतानी टीकाओमां उपयोग को छ-तेमणे ए अवतरणो लीधेला होवाथी आपणे ए टीकाओमाथी ज ते लेवानां छ. भाष्यना मूळमां ज जे अवतरणो आपेला छे ते खास काळा अक्षरोमां आपवामां आव्यां छे. बाकीनां कया टीकाकारे कयां अवतरणो लोधां छे ते जुदी जुदी रीते बताववामां आव्यां छ. ए अवतरणो कया प्रन्थोमांथी लेवामां आवेलां छे तेनो काई उल्लेख टीकाकारो करता नथी. तेथी कवना उपनिपद्वाक्यकोप अने योजां तेवां वेदसंबंधी पुस्तको उपरथी घणांकनां स्थळो खोळी काढवानो प्रयत्न कर्यो छे. ए तो चोकस छे के जे अवतरणो जिनभद्रे लीयां छे ते घणां प्रमाणभूत छे अने तेमना वखतना ब्राह्मणो वादविवादमा ए वाक्योनी खूब चर्चा करता होवा जाइए. ब्राह्मणोनां दर्शनशास्त्रोमा परस्पर विरुद्ध विचार दर्शावनारां ए वाक्यो उपरथी दरेक गणधरनो संशय उभी करवामां आव्यो छे. प्रसिद्ध उपनिपदोना मूळ पाठो साथे सरखावतां ए वाक्योमा जे केटलीक भूलो नजरे पडे छे तेनुं कारण विनकाळजीपूर्वक एओनो उपयोग करवामां आवेलो हो जोईए. ४२, ५ (१५५३). *( यदाहुनास्तिका) एतावानेव पुरुपो ऽयं यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे, वृकपद पश्य यद् वदन्ति बहुश्रुताः ॥ * I पिब खाद व साधु शोभने यदतीतं वरगात्रि तत्र ते । न हि भीर गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कडेवरम् ॥ (भट्टोऽज्याह) ४ आ अंक ते प्रो. ल्युमने पोताना मूळ निवन्धमा विशेषावश्यकभाष्यना जे ५ विभागो पाडया छे तेना सूचक छे. एमां पहलो अंक प्रकरणने अने वीजो गाथानंबरने सूचवे छे. आ पछी जे कौंसमा आकडा आपेल छ ते काशीनी यशोविजय जैनग्रन्थमाळामां प्रकट थएल सटीक विशेषावश्यकभाष्यमांनी चालू गाथासंख्या सूचवे छे. मुद्रित ग्रंथमा १५४८ मी गाथा ज्यां पूरी थाय छे त्यां उक्त प्रो० ना वर्गीकरण प्रमाणे प्रथम विभाग पूरो थाय छे अने १५४९ मी गाथायी बीजो विभाग शरू थाय छ ते २०२४ मी गाथाए पूरो थाय छ . ए विभागां गणधरवाद नामनो विषय आवे छे अने तेनी कुल ४७६ गाथा छे. 8-( ) आवा गोळ कौंसमा आपेला पाठो आवश्यकसूत्रनी हारिभद्री टीकामां आपवामां आवेला नथी; तेम ज[ ] आवा चौखुणा कौंसमा आपेला पाठो विशेपावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत टीकामा आपेला नथी; एम समजवू. + आ अंको आवश्यकनी हारिभद्री टीकामां दरेक गणधरना माटे जे शंका-समाधानात्मक अवतरणो आपवामा आवेला छेतेनो क्रमनिर्देश सन्यवे छे. एमांनो मोटो अक्षर ए गणधरनी संख्या बतावे छ अने तेनी आगळ जे नानो अक्षर के ते अवतरणनी संख्या जणावे छे. I आ चिन्हवाळा अवतरणो फक्त आवश्यक चूर्णिमा ज मळी आवे छे. * आ बन्ने श्लोको हरिभद्रकृत पढ्दर्शनसमुच्चयना छेवटना लोकायत प्रकरणमा, श्लोक ८१-८२, छे (मुद्रित पृ० ३०१, ३०४, कलकत्ता) त्यो बीजा श्लोकनो प्रथम पाद 'पिव खाद च चारुलोचने' आ प्रमाणे छ. २. शीलांकाचार्यनी टीकामा 'यथाहुः पाठ छे. ३. शी. टी. 'एके.'४. चर्णिमा 'एके आहः' एटलो ज पाठ छे. ५.विशेपावश्यकनी हेमचंद्रकृत टीकानी केटलकि प्रतोमा आना ठेकाणे लोकोऽयं पाठ छ. ६० शी. ह.हे. नी केटलीक प्रतोमा वदन्त्यबहश्रताः' पण पाठ छे.

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