Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ अंक १] प्रो. ल्युमन अने आवश्यकत ९१ दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काश्चित् स्नेइायात् केवलप्रेति शांतिम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात् केवळ मेति शांति ॥ • यशस्तिलक चम्पू ६, १ मां पण आ श्लोको आपेला छे. पण त्यां चरणव्यतिक्रम थलो नजरे पड़े छे. -- एक अवतरण वळी आवेलुं छे जे ऊपरना १' वाळा अवतरण साथै संबन्ध घरावतुं होय तेन जणाय छे, अने हेमचन्द्रना लखवा उपरथी वे कोई उपनिपनी टीकामांनुं (उदा० वृहदारउपनिषद्) होय तेम मालुम पडे छे. जिनभद्र गूळ ते आ प्रमाणे नोंचे छे. ४०. गोयम, वेय-पयाणं इमाणमत्थं च तं न याणासि । जं विन्नाणघणो च्चिय भूएहिंतो समुन्याय ॥ ४१. मन्नासे मज्जुंगेसु व मयभावो भूय-समुदय-भूओ । विन्नाणमेतं आया भूएऽणु विणस्सइ स भूओ ॥ ४२. अत्यि न य पेच्चसन्ना जं पुव्वभवेऽभिहाणं ' असुगों चि । जं भणियं न भवाओ भवन्तरं जाइ जीवो त्ति ॥ छेवटनी गायामांना वाक्य उपर हेमचन्द्र आ प्रमाणे टीका करे छे–' किमिह वाक्ये तात्पर्य - -वृत्त्या प्रोक्तं भवति इत्याह- सर्वयात्मनः समुत्पद्य विनष्टत्वात् न भवान्तरं कोऽपि यातत्युिक्तं भवति ।' ज्यारे शीलांक पोतानी हमेशानी विरल- व्याख्यापद्धति प्रमाणे एटलं ज लखे छे के —— एवं न भवाद् भवा-न्तरमस्वीरयुक्तं भवति ' विशेषावश्यक २, २२६ मां वनस्पति अने प्राणी विद्या संबंधी अन्धविश्वास सूचवनाएं एक अवतरण आवे छे, ते पण हुं आनी पूरवणी रूपे अहीं नोंची लेवा इच्छं छु. ए अवतरणोनो' विपय, सदृशांची सदृशनी ज उत्पत्ति थई शके, एवो कोई नियम नथी; एछे एना उपर टीकाकारे खूब विवेचना करी छे. ए अवतरण वाळी गाथाओ आ प्रमाणे छे: २२६. जाइ लरो संग/ओ भूतणओ सासवाणु लित्तामो । संजाय गोलोमाविलोम -संजोगओ दुव्वा ॥ २२७. इति रुक्साउव्वेदे, जोणिविहाणे य विसरिसेर्हितो । दीसइ जम्हा जम्मं, सुधम्म, तं नायमेगन्तो ॥ सरख वो, पंचतन्त्र श्लोक १, १०७. ए ठेकाणे कविसंप्रदायनी पद्धति वाद करतां ऊपरना अन्धविश्वासवाळा अवतरणसांनी त्रीजी हकीकतनो उल्लेख करेलो छे – जनके 'दुर्वा पि गोलोमतः ' । आ अवतरणमांनी पहेली हकीकत के ' शृंगपांथी शर उत्पन्न याय छे ' तेनो उल्लेख वार्ताना रूपम एक प्रत्येकबुद्धी कथामां आवे छे. त्यां जणाव्या प्रमाणे एक शवनी खोपरी, आंख अने मोढामांथी वांसना त्रण फणगा नीकळ्या हवा. आ गाथासां जे योनिविधान शब्द आवेलो छे तेनो अर्थ टीका- ' -कारे लख्या प्रमाणे ' योनिप्राभृत' हे अने ए नाप एक ग्रन्यनुं छे जे पूनाना केटलॉगमां नं० १६६ -२६६; तथा २१, १२४२ मां नोंघेलो .

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127