Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 73
________________ अंक १] ६६ M wwwwwwwwwwww महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जा विरइय जयवंदाहिं आसिमुर्णिदहिं सा कह केम समाणमि ॥ ३६ ॥ अकलंक कविल कर्णयर मयाई, दिय सुगय पुरंदर णय सयाई । दन्तिलविसाहि लुद्धारियाई, गउ णायई भरह वियारियाई ॥ ३७॥ गउ पीय पायजेलिजलाई, अइहीस पराणहं गिम्मलाई। भावाहिउ भारह-भासि वासु, कोहलु कोमलगिरु कालिदासु ॥ ३८॥ चउमुई सयंभु सिरिहेरिसु दोणु, णालोइउ का ईसाणु वाणु । एउ धाउ ण लिंगु ण गुणसमासु, मउ कम्मु करणु किरिया विसेसु ॥ ३६॥ एउ संधि ण कारउ पयसमत्ति, उ जाणिय मई एकवि विहत्ति । गउज्झिायमसहधामु, सिद्धतु धवल जयधवल रणामु॥४०॥ पडुरुहडु जड णिण्णासयारु, परियच्छिउ णालंकारसारु । पिंगल पत्थारु समुद्दे पडिउ, ण कयाइ महारइ चित्ते चडिउ ॥ ४१ ॥ जैसधुसिंधु कल्लोलसितु, ण कलाकोसले हियवउ णिहित्तु । हउं वप्प निरक्खरु कुक्खिमुक्खु, परवेसे हिंडमि चम्मरुक्नु ॥ ४२ ॥ अर दुग्गमु होइ महापुराणु, कुंडएण मवई को जलविहाणु। अमरासुरगुरुयणमणहरोहि, जं आसि कयउ मुणिगणहरोह ॥४३॥ तं हउं कामि भत्तीभरण, किं गहे ण भमिज्जइ महुअरेण । पहु विणउ पयासिउ सज्जणाह, मुहे मसि कुच्चउ कउ दुज्जणाहं ॥४४॥ हूं, ऐसी दशा में जिस चरित को बड़े बड़े जगद्वन्द्य मुनियों ने रचा है उसे मैं कैसे बना सकूँगा ? ॥ ३६ ॥ मैं अकलंक । जैन दार्शनिक ), कपिल ( सांख्यकार ), कणचर (कणाद) के मतों का ज्ञाता नहीं हूं, दिय (ब्राह्मण), सुगत बौद्ध), पुरन्दर (चार्वाक), आदि सैकडों नयों को, दन्तिल, विशाख,लुब्ध (प्राकलरक्षणकर्ता ) आदि को नहीं जानता । भरत के नाट्यशास्त्र से मैं परिचित नहीं ॥३७॥ पतंजलि ( भाप्यकार ) के और इतिहास पुराणों के निर्मल जल को मैंने पिया नहीं, भावों के आधिकारी भारतभाषी व्यास, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख खयंभ कवि, श्रीहर्ष, द्रोण, कवीश्वर बाण का अवलोकन नहीं किया । धातु, लिंग, गुण, समास, कर्म, करण, क्रियाविशेषण, सन्धि, पदसमास, विभक्ति इन सब में से मैं कुछ भी नहीं जानता। आगम शब्दों के स्थानभूत छ और जयधवल सिद्धान्त भी मैंने नहीं पढ़े॥ ३८-४० ॥ चतुर रुद्रट का अलंकार शास्त्र भी मुझे परिज्ञात नहीं, पिंगल प्रस्तार आदि भी कभी मेरे चित्तपर नहीं चढ़े॥४१॥ यशः चिन्हकवि के काव्यसिन्धु की कल्लोलों से मैं कभी सिक्त नहीं हुआ। कलाकौशल से भी मैं कोरा हूं । इस तरह मैं बेचारा निरक्षर मूर्ख हूं, मनुष्य के वेष में पशु के तुल्य घूमता फिरता हूं ॥ ४२ ॥ महापुराण बहुत ही दुर्गम है । समुद्र कहीं एक कूडे में भरा जा सकता है ? फिर भी जिसे सुर असुरों के मनको हरनेवाले मुनि गणधरों ने कहा था, उसे अब मैं भक्ति भाववश करता हूं। भौरा छोटा होनेपर भी क्या विशाल आकाश में भ्रमण नहीं करता है? अब में सज्जनों से यही विनती करता हूं कि आप दुर्जनों के मुंह पर स्याही की ग्रूची फेर दें॥ ४४ ॥ - - ८ सांख्यमते मूलकारः।९ वैशेषिकमते मूलकारः। १० चार्वाकमते प्रन्यकारः। ११ पाणिनिव्याकरणभाष्यं ( पतंजलि)। १२ एकपुरुषाश्रित कथा । १३ भारतभाषी व्यास । १४ श्रीहर्षे । १५ कवि ईशानः वाणः । १६ परिज्ञातः। १७ प्राकृत लक्षण कर्ता।

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