Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 71
________________ अंक १] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण mmmmmmam दुश्वसण सीहसंघायसरहु, णवियाणहि किं णामेण भरहु । पत्ता। आउ जाहुंतहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकइकहत्तणु जाणई । सो गुणगणतत्तिल्लउ तिहुअणिमल्लउ णिच्छउ पई सम्माणई ॥ १८॥ जो विहिणा णिम्मिउं कव्वपिंडु, तं णिसुणेवि सो संचलिउ खंडु । आवंतु दिड भरहेण केम, वाईसरिसरिकल्लोलु जेम ॥ १६ ॥ पुणु तासु तेण विरइउ पहाणु, घरु प्रायहो अब्भागयविहाणु । संभासणु पियवयणेहिं रम्मु, हिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु ॥२०॥ तुहूं आयउ णं गुणमणि णिहाणु, तुहुं श्रायउ णं पंकयहो भाणु । पुणु एम भणेप्पिणु मणहराई, पहखीणरीणतणु सहयराई ॥२१॥ वर राहाणविलेवणभूसणाई, दिएणई देवंगइणिवसणाई।। अश्चंत रसालई भोयणाई, गलियाई जाम कहवय दिणाई ॥ २२॥ देवीसुएण कइ भाणउं ताम, भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम । णियसिरिविसेसणिजियसुरिंदु, गिरिधार वीरु भइरव गरिंदु ॥ २३ ॥ पइ मरिणउं वरिण वीरराउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्तभाउ । पच्छिन्तु तासु जह करहि प्रज, ता घडइ तुज्मु परलोयकज्जु ॥२४॥ तुहूं देउ कोवि भन्वयणबंधु, पुरुएवचरियभारस्स खंधु । अभत्थिोसि देदेहि तेम, णिविग्घे लहु णिवहह जेम ॥ २५ ॥ घता। अइललियएं गंभीरएं सालंकारएं वायएं ताकि किज्जइ। जह कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सम्भावेण शुणिजह॥२६॥ को आनन्द देनेवाले मन्दिर में चालिए। वह सुकवियों के कवित्वका मर्मज्ञ है, गुणगणों से तृप्त है और तीनों भवनों के लिए भला है, वह निश्चय से आप का सम्मान करेगां॥ १८॥ यह सुन कर वह खण्ड कवि-जिस के शरीर को मानों विधाताने काव्य का मूर्तिमान पिण्ड ही बनाया हैउस ओर को चल दिया। उस समय भरत मंत्रीने उस को इस तरह आते देखा जिस तरह सरस्वतीरूपी सरिता की एक तरंग ही आ रही है ॥ १९॥ तब उस ने अभ्यागत विधान के अनुसार उस का सब प्रकार से अतिथिसत्कार किया और बहुत ही प्रिय, दंभरहित धर्मवचनों से संभाषण किया ॥२०॥ कहा हे गुणमणिनिधान, आप भले पधारे, कमल के लिए जैसे सूर्य प्रसन्नताका कारण है, उसी तरह आप मेरे लिए हैं । ऐसा कहकर उस के मार्ग श्रम से क्षीण हा शरीर को सुख देनेवाले मनोहर मान, विलेपन और आभूषणों से उस का सत्कार किया और देवों के निवास करने योग्य स्थान में ठहराया। इसके बाद अत्यन्त रसाल भोजन से उसे तृप्त किया । इस तरह कुछ दिन बीत गये ॥२१-२२॥ देवी सुत (भरत.) ने कहा-हे श्लाघनीय नामधारी पुष्पदन्त, भैरव नरेन्द्र ( कृष्णराज ) अपने वैभव से सुरेन्द्र को भी जीतनेवाले और पर्वत के समान धीर वीर हैं ।। २३ ॥ तुमने कांची नरेश वीरराज शुद्रक (१) का किया है, और उसे माना है अत: इस से जो मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है उस का यदि तुम आज पायश्चित कर डालो तो इस से तुम्हारा परलोक का कार्य बन जाय ॥ २४ ॥ भव्यजनों के लिए बन्धुतुल्य तुम्हें परुदेव (आदिनाथ)चरित्र की रचना करनी चाहिए। मैं तुम्हारी अभ्यर्थना करता हूँ। इस काव्यरचना से तम निर्विघ्नता पूर्वक निवृति प्राप्त करोगे ॥ २५॥ वह अतिशय ललित, गंभीर और अलंकारयुक्त रचना भी किस काम की जिस में कामबाणों को व्यर्थ करनेवाले अहेतु भटारक की सद्भावपूर्वक स्तुति न की गई हो ? ॥२६॥ १ भइरव-कृष्णराजः। ।

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