Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 76
________________ AAAAAmAne nnnnnn जैन साहित्य संशोधक [खण्ड २ चाय भोय भाउग्गमसात्तिए, पई अणवरय रइय कामित्तिए ॥ १६ ॥ राउ सालिवाहणु वि विसेसिउ, पई णियजसु भुषणयले पयासिउ । कालिदासु जे खैध णीयउ, तहो सिरिहरिसहो तुहुँ जगि बीयर्ड ॥ १७ ॥ तुटुं कइकामधेणु कइवच्छल, तुहूं कइकप्परुक्खु ढोइयफल । तुहु कइ सुरवरकीलागिरिवरु, तुहूं कइ रायहंसमाणससरु ॥ १८॥ मं? मयालसु मयणुम्मत्तउ, लोउ असेसुवि तिठ्ठए भुत्तउ । केण वि कव्वपिसलउ मएिणो, केण वि थट्टु भणेवि अवगरिणउ । णिञ्चमेव सम्भव पउंजिउँ, पई पुणु विणउ करे वि हउं रंजिउं ॥ १६ ॥ घता। धणु तणुसमु ममु ण तं गहणु णेहु णिकॉरिमु इच्छमि । देवीसुश्र सुदणिहि तेण इउं णिलए तुहारए अच्छमि ॥२०॥ मह समयागमे जीयहे ललियहे, वोल्लइ कोइल अंबयकलिय। काणणे चंचरीउ रुणुरुंटइ, कोरु किरण हरिसेण विसट्टइ ॥ २१ ॥ मझु कात्तणु जिणपयमत्तिहे, पसरह उणियजीवियवित्ति है। विमलगुणाहरणंकियदेहउ, एह भरह णिसुणइ पइं जेहउं ।। २२ ।। कमलगंधु घिप्पंइ सारंगें, गउ सालूर णीसॉरंगे।' गमणलील जा कयरिंगें सा किंणासिजा सारंगे ॥२३: ।। वड्ढियसजण दूसणवसणे, सुका कित्ति कि हम्मैइ पिसुणे । कहमि कन्तु वम्मेहसंहारण, अजियपुराणु भवरणवतारणु ॥ २४ ॥ शालिवाहन राजा से भी बढ़ गये हो और अपने यश को तुमने पृथ्वीतलपर प्रकाशित कर दिया है। इस समय जगत में तुम दूसरे श्रीहर्ष हो जिसने कविकालिदास को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया था। ६-७ ॥ तुम कविकामधेनु, कविवत्सल, कविकल्पवृक्ष, कविनन्दनवन और कविराजहंस समान सरोवर हो ॥१८॥ ये सारे लोग मूर्ख, मदालस, और मदोन्मत्त बनें रहें, (इन से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं )। किसी ने मुझे काव्यराक्षस कह कर माना और किसी ने दूंठ कह कर मेरी अवमानना की । परन्तु तुमने सदा ही सद्भावों का प्रयोग करके और विनय करके मुझे प्रसन्न रक्खा है ॥ १९ ॥ ____ मैं धन को तिन के के समान गिनता हूं और उसे नहीं चाहता हूं। हे देवीसुत श्रुतनिधि भरत, मैं अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में रहता हूं ॥२०॥ वसन्त का आगमन होनपर जब आमों में सुन्दर मौर आते हैं तब कोयल बोलती है और बगीचों में भार गंजारव करते हैं, ऐसे समय में क्या तोते भी हर्ष से नहीं बोलने लगते हैं ? ॥२१॥ जिन भगवान के चरणों की भक्ति से ही मेरी कविता स्फुरायमान होती है अपने जीवित की वृत्ति से या जीविकानिर्वाह के खयाल से नहीं। हे विमलगुणाभरणाकित हे भरत, अब मेरी यह रचना सुन ॥ २२॥ कमलों की सुगन्ध भ्रमरगण ग्रहण करते हैं, निःसार शरीर मेंढ़क नहीं। हाथी या हंस जिस चाल से चलते हैं, उस से क्या हरिण चल सकते हैं? इसी तरह से जिन्हें सज्जनों को दोष लगाने की आदत पड़ गई है, ऐसे दुर्जन क्या सुकवियों की कीर्ति को मिटा सकते हैं ? अब मैं मन्मथसंहारक और भवसमुद्रतारक अजितपुराण नामक काव्य को कहता हूं। १४ त्यागः । १५ स्कन्धे धृतो येन श्रीहर्षेण । १६ तेन सदृशो महान् त्वं । १७ भूखों लोकः । १८ सद्भाव । १९ अकृत्रिम धर्मानुरागं । १ वसन्तसमागमे । २ जातायाः सहकारकलिकायाः। ३ आम्र कलिकानिमितं । ४ गृह्यते । ५ भ्रमरेण । ६ भेकेन । ७ निःसारांगण निकृष्ट शरीरेण । ८ हस्तिना हंसेन वा । ९मृगेण । १. हन्यते। ११ कथयामि। १२ मन्मथ ।

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