Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 17
________________ अंक योगदर्शन चार भेद नजर आते हैं । उक्त चार भेदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियाम हैं1 | बोंद्ध सप्रदायमें समाधि राज नामक ग्रन्थ भी हैं । वैदिक, जैन और बौद्ध संप्रदाय योगविषयक साहित्यका हमने बहुत' संक्षपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये-कॅट्लोगस् कॅटलॉगॉरम् 2, वो० १ पृ. ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्योंकी नामावलि है वह देखने योग्य है। ___ यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहा है, तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मार्गोंका निर्माण हुआ है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है। 1. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविंच अकुसलहि' धम्मेहि सवितकं सविचारं विवेकजं पीर्तिसु खं पढमज्झानं उपसंपज्ज विहार्सि; वितकविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज्ज विहासि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासि सतो. च संपजानो सुखं च कायेन पटिसंवेदसि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविंहारीऽति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बऽव सोमनस्स दोमनस्सानं अत्यंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्सासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासिं । इन्हीं चार ध्यानॉका वर्णन दीघनिकाय सामञकफलसुतमें है । देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२। यही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बुद्धलीलासारसंग्रहमें है । देखो पृ १२८ । जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्य अ. ९ सू०४१-४४ । योगशास्त्रमें संप्रशात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है। पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ । 2 थिआडोर आउफ्रेटकृत, लिप्झिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति । 3 उदाहरणार्थःसतीपु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽअनैः ॥ ३७॥ विमूढाः कर्तमाक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्ततुभिः॥३८॥ चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं सस्थितं स्वशरीरकम् । साधयान्त समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥ ३९ ॥ योगवाशिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ९२. ___4 इसके उदाहरणमें चौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमें मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह, जैनशास्त्रमें श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्तिमें " ऊसासं ण णिरंभइ" १५२० इत्यादि. उक्तिने हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्यने भी अपने योगशास्त्रमें "तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदार्थतं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥" इत्यादि उक्तिसे उसी बातको दोहराया है। श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्रकी अपनी वृत्तिमें (१-३४) प्राणायामको योगका आनिश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरसन किया है।

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