Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 55
________________ AAAAAAMRAPAR अंक सोमदेवसरिकत नीतिवाक्यामृत। ३-" कुटीरकवशेदक -हंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५ इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तालाखेत एलपुस्तकमें ये सूत्र नहीं है। परन्तु इस कारणमे कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता । क्योंकि १-जब तक दश पांच इस्तलिखित प्रतियो प्रमाणमें पेश न की जासकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मलपुस्तकमें जो पाठ नहीं है वे मुलकत्ताके नहीं है-ऊपरसे जोड़ दिये गये है। इस तरहके होन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं। २-लकत्ताने पहले वोंक भेद बतलाकर फिर आश्रमोके भेद बतलाये हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्य और यति । फिर ब्राह्मचारियोंके उपकुवांण, नैष्ठिक, और ऋतुप्रद ये तान भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं । इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यातेयोके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियोंके समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यतियोंके भी भेद बतलाय जाय और वे ही उक्त तीन सूत्रोंमें बतलाये गये हैं। तब यह निश्चय. पूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तानों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलकीने ही उन्हें रचा होगा। जिन प्रतियांम उक्त सत्र नहीं है। उनमें उन्हें भलसे ही छटे हए समझना चाहिए। -यदि इस कारणसं ये मूलकत्ताक नहीं हैं कि इनमें बतलाये हुए भेद जैनमतसम्मत नहीं हैं, तो हमारा प्रदन है कि उपकुवाण, फुतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोंक भेद भी किसी जैनग्रन्थमें नहीं लिखे हैं, तब उनके सम्बन्धक जितने सूत्र हैं, उन्हें भी मूलकत्तांके नहीं मानने चाहिए। यदि सूत्रोंक मुलकर्ताकृत होनेकी यही कसौटी सोनीजी ठहरा देवे, तब तो इस प्रन्थका आधस भी आंधक भाग टीकाकार कृत ठहर जायगा । क्योकि इसमे सकड़ों ही सूत्र ऐसे है जिनका जनधर्मक साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और फाई भी विद्वान उन्हें जनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता। ४-जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक है और जिन्हें सोनाजी टीकाकताको गढन्त समझते हैं, उसी प्रकार मद्रित और मलपस्तकमें भी कुछ सन्न अधिक है (जो टीकापुस्तकमें नहीं है), तब उन्हें किसकी गढन्त समझनी चाहिए? विद्यायुद्धसमुद्देशके ५९ ३ सूत्रफ आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मौजूद है: “सांख्यं योगी लोकायतं चान्वीक्षिकी । वौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् (नान्वीक्षिकोत्वं), प्रकृतिपुरुपशो हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरति, तमोमिनाभिभूयते।" भला इन सूत्रोको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं था ? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जैनोंके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जावें तो उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वेदविरोधी होनेके कारण जैन और बौद्धदर्शनको आन्वीक्षिकीस बाहर कर दिया है । और मुद्रित पुस्तकमें तो मूलकर्ताक मंगलाचरण तकका अभाव है । वास्तविक बात यह है कि न इसमे टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालेका । जिस जैसी प्रति मिली है उसने उसके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है । एक प्रतिसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतियों होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं। ___ हम समझते हैं कि इन बातोसे पाठकोंका यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं। यह केवल सोनीजीके मस्तककी उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनकी भ्रमपूर्ण टिप्पणियोंके कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा। एक विचारणीय प्रश्न । इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोंका ध्यान इस और विशेषरूपसे आकर्पित करना चाहते हैं कि वे इस प्रन्यका जरा गहराईके साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्मके साथ क्या सम्बन्ध है। हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है । राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मले कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है

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