Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 62
________________ जैन साहित्य संशोधक [ खण्ड २ इस लेख में हम जिस महाकवि का परिचय देना चाहते हैं, उसकी रचना इन्हीं श्रपभ्रंश भाषाओं में की एक भाषा में हुई है जिसे हम दक्षिण महाराष्ट्र की अपभ्रंश कह सकते हैं । दक्षिण की होने पर पाठक देखेंगे कि इसकी प्रकृति हमारी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं से कितनी मिलती जुलती हुई है । हमें पुष्पदन्त से भी पहले के अपभ्रंश साहित्य के कुछ ग्रन्थ मिले हैं जिन का परिचय हम आगे के किसी श्रंक में देना चाहते हैं । महाकवि पुष्पदन्त कहां के रहनेवाले थे, इसका पता नहीं लगता । उनके ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है उसके अनुसार हम उन्हें सब से पहले मेलाड़ि नगर में जो संभवतः मान्यखेट का ही दूसरा नाम है, पाते हैं। वहां वे पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए श्रा पहुंचते हैं और वहीं से उनके कवि-जीवन का प्रारम्भ होता है । ५८ काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम केशव और माता का मुग्धादेवी था । एक जगह उन्होंने अपने पिता का नाम कन्दढ़ लिखा है जो केशव के ही पर्यायवाची शब्द कृष्ण का अपभ्रंश रूप है । ' खण्ड ' यह शायद उनका प्रचलित नाम था जो उनके ग्रन्थों में जगह २ व्यवहृत हुआ है । श्रभिमानमेरु, काव्यरत्नाकर, कव्वोपसल्ल ( काव्यपिशाच ) या काव्यराक्षस, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय श्रादि उनके उपनाम थे । वे शरीर से कृश थे, कृष्णवर्ण थे, कुरूप थे परन्तु सदा प्रसन्नमुख रहते थे। उन्होंने आपको स्त्रीपुत्र हीन लिखा है; परन्तु संभव है यह उस समय की ही अवस्था का द्योतक हो जब वे मान्यखेटपुर में थे और अपने (उपलब्ध) ग्रन्थों की रचना कर रहे थे । इसके पहले जहां के वे रहनेवाले ये वहां शायद वे गृहस्य रहे हो और विवाद आदि भी हुआ हो । यद्यपि अपने ग्रन्थों में उन्होंने अपना बहुत कुछ परिचय दिया है; परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि मान्य-" खेट में आने के पहले उनकी क्या अवस्था थी और न यही स्पष्ट होता है कि वास्तव में उन्होंने अपनी जन्मभूमि क्यों छोड़ी थी । केवल यही मालूम होता है कि दुष्टों ने उनको अपमानित किया था और उन्हीं से संत्रस्त होकर वे भटकते भटकते बड़े ही दुर्गम और लम्बे रास्ते को तय करके मान्यखेट तक श्राये थे । उनके हृदय पर कोई बड़ी ही गहरी ठेस लगी थी और इस से उन्हें सारी पृथ्वी दुर्जनों से ही भरी हुई दिखलाई देती थी। लोगों की इस दुर्जनता का और संसार की नीरसता का उन्होंने अपने ग्रन्थों की उत्थानिकाओं में बार बार और बहुत अधिक वर्णन किया है। अपने समय को भी उन्होंने खूब ही कोसा है, उसे कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण, दुर्नीतिपूर्ण और विपरीत विशेषण दिये हैं और कहा है कि "जो जो दीसई सो सो दुज्जणु, णिष्फलु नीरसु गं सुक्कड वणु । " अर्थात् जो जो दिखते हैं वे सव दुर्जन हैं, सूखे हुए, बन के समान निष्फल और नीरस हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वे किसी राजा के द्वारा सताये हुए थे और उसी के कारण उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी थी। इसी कारण उन्होंने कई जगह राजाओं पर गहरे कटाक्ष किये हैं । उनके भ्रकुटित नेत्रों और प्रभुवचनों को देखने सुनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा वतलाया है । वे भरत मंत्री से कहते हैं कि - " वह लक्ष्मी किस काम की जिसने दुरते हुए चैवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया है, श्रभिषेक के जल सुजनता को धो डाला है, और जो विद्वानों से विरक्त रहती है । x x इस समय लोग नीरस और निर्विशेष हो गये है, वे गुणीजनों से, द्वेष करते हैं, इसी लिए मुझे इस वन की शरण लेनी पड़ी है । " * गंधव्वेकण्हडणं दणेण आयई भवाई किय थिर मणेण । --यशोधरचरित्र ।

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