Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 47
________________ wrrinnrnnanorrarmanrammmm... AAM अंक १] सोमवसूरिकत मीशिवाक्यामृत । [४. अनेक अंशोंका अभिप्राय उसमें किसी न किसी रूपमें अन्तर्निहित जान पड़ता है + । जहाँ तक हम जानते हैं जैनविद्वानों और आचामि-दिगम्यर और श्वेताम्बर दोनोंमें-एक सोमदेवने ही 'राजनीतिशास्त्र' पर कलम उठाई है। अतएव जनसाहित्यमें उनका नीतिवाक्यामृत अद्वितीय है । कमसे कम अब तक तो इस विपयका कोई दूसरा जनअन्य उपलब्ध नहीं हुआ है। प्रन्थ-रचना। इस समय सोमदेवसूरिके केवल दो ही अन्य उपलब्ध हैं -नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पू । इनके सिवाय-जैसा कि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे मालूम होता है-तीन ग्रन्थ और भी हैं-१ युक्तिचिन्तामणि, २त्रिवर्गमहेन्दमातलिसंजल्प और ३ पण्णवतिप्रकरण । परन्तु अभीतक ये कहीं प्राप्त नहीं हए हैं। उक्त ग्रन्थोंमेंसे युक्तिचिन्तामाणि तो अपने नामसे ही तर्कग्रन्थ मालूम होता है और दूसरा शायद नीतिावपयक होगा। महन्द्र और उसके सारथी मातलिके संवादरूपमें उसमें त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी चर्चा की गई होगी। सरके नागसे सिवाय इसके कि उसमें ९६ प्रकरण या अध्याय हैं, विषयका कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता है। इन सब ग्रन्थोंगें नीतिवाक्यामृत ही सबसे पिछला ग्रन्थ है। यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक इसके पहलेका क्योकि नीतिवाक्यामृतमें उसका उल्लेख है। बहुत संभव है कि नीतिवाक्यामृतके बाद भी उन्होंने ग्रन्थरचना की हो और उक्त तीन ग्रन्योंके समान वे भी किसी जगह दीमक या चूहोंके खाद्य बन रहे हों, या सर्वथा नष्ट ही हो चुके हों। विशाल अध्ययन। यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके पढ़नेसे मालूम होता है कि सोमदेवसूरिका अध्ययन बहुत ही विशाल था। ऐसा जान पड़ता है कि उनके समयमें जितना साहित्य-न्याय, व्याकरण,काव्य, नीति,दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था. उस सबसे उनका परिचय था। केवल जेन ही नहीं, जनेतर साहित्यसे भी वे अच्छी तरह परिचित थे । यशस्तिलकके चौथे आश्वासमें (पृ० ११३ में) उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्योंमें नग्न क्षपणक या दिगम्बर साधुओका उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्धि क्यों है ?-उर्व, भारवि, भवभूति, भहरि, भ टकण्ट, गुणाढ्य, व्यास, भास, वास, कालिदासx, बाण+, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर। इससे मालूम होता है कि वे पूर्वोक्त कवियोंके काव्योंसे अवश्य परिचित होंगे। प्रथम आश्वासके ९० वे पृष्ठमें उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपिशल आर पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद + नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकके कुछ समानार्थक वचनोंका मिलान कीजिए:१-युभुक्षाकालो भोजनकाल:- नी० वा०, पृ० २५३ ।। चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले, मध्ये दिनस्य धिपणश्चरकः प्रभाते। भुक्ति जगाद नृपते,मम चैप सगस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव ॥३२८॥-यशस्तिलक,आ० ३॥ ( पूर्वोक्त पद्यमें चारायण, तिमि, धिपण और चरक इन चार आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया गया है।) २-कोफवहिवाकामः निशि भुजीत । चकोरवन्नक्तंकामः दिवापक्वम् ।- नी० वा. पृ० २५७ । अन्ये त्विदमाहुः यः कोकवहिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति । स भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ॥ ३३०॥ ---यशस्तिलक, आ०२ * भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखसक्षिणायं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वसमें (पृ. २५.) उद्धत है।- रघुवंशका भी एक जगह (आश्वास ४, पृ० १९४) उल्लेख है।+ बाण महाकविका एक जगह औ भी (आ०४, पृ.१०१) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है।

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