Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 2
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 34
________________ जैन साहित्य संशोधक नं० ३११. श्रीमत्संवत् १६७१ वैशाष सुदि ३ शनों श्री आगरानगरे ओ लोढा गोते-गावसे सा० पेमन भार्या श्री शक्तादे पुत्र सा० पेतमी मा० भत्तादे पुत श्रा अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री विमलनाथ वि. सा० Qरपाल....। ___ नं० ३१२. [सं० १६७१ J॥ संत्रपति श्री कुंरपाल सं० सोनपालः स्वमात. अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ श्री धर्ममूर्तिसरि पट्टाम्बुजहंस श्री ५ श्री कल्याणसागरसरी श्रीपार्श्वनाथविवं प्रतिष्ठापितं पूज्यमानं चिरं नंदतु ॥ नं० ४३३. श्रीमत्संवत १६७१ व वैशाप सुदि ३ शनी श्री आगरावास्त-योसवाल ज्ञातीय लोहा गोत्रे गावं-जा स० ऋषभदाम भार्या रेषश्री तत्पुत्र श्री कुंरपाल, मोनपाल संवाधिपे स्वानुजवर दुनीचंदस्य पुण्याथै उपकाराय श्री अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री आदिनाथविवं प्रतिष्ठापितं ॥ ] प्रशस्ति की नकल (नोटः- [ ] इन चिन्हों में दिये अक्षर टूट गए हैं या साफ नहीं पढे जाते ) ॥ पातसाहि श्री जहांगी[२] ॥ १. ॥ ॐ ॥ श्री सिद्धेभ्यो नमः ॥ स्वस्ति श्री विष्णुपुत्रो निखिल्गुणयुनः पारगो वीत रागः । पायाद् वः क्षीणका सुरशिखरिममः क लो२. तीर्थप्रदाने ॥ श्री श्रेयान् धर्ममूर्ति विकजनमन: पंकने विन्वाभानः । कल्याणाम्भोधिचन्द्रः सुरनरनिकरः सेन्य [ मा]३. नः कृपालुः ॥ १ ॥ ऋषभप्रमुखाः सार्वा ! गौतमाया मुनीश्वराः । पापकर्मविनिर्मुक्ताः __ क्षेमं कुर्वन्तु सर्वदा ।। २ ॥ कुर४. पालस्वर्णपालौ । धर्मकृत्यपरायणौ । ववंशकुजमाण्डौ । प्रशस्तिलिख्यते तयोः ॥ ३॥ श्रीमति हायने रम्ये चन्द्रपिरस५. भूमिते १६७१ । पत्रिंशत्तियिशाके १९३६ विक्रमादित्यभूपतेः॥ ४ ॥ राधमासे वस न्तौ शुक्लायां तृतीयातियो । युक्त तु ६. रोहिणीमेन निषे गुरुवासरे ॥ ५॥ श्री मदश्चल गच्छाख्ये । सर्वगच्छावतंसके । सिद्धान्ताख्यातमाग्गेण । राजिते विश्वविस्तृते । ६ । उग्रसे1 लेख में विव 2 वितर्ग खोदकर काटी गई है जित से विराम सा प्रतीत होता है। 3 पद चाहिये। 4 "ल" खोदने से रह गया था। पीछे च न के नीचे खोदा गया है। 5ग के लिये प्रचिन्ह लिखा गया है।

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