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जैन परम्परा का इतिहास
विकसित हो गया। इसलिए मृत्यु के बाद लोग रोने लगे। उसकी स्मृति में वेदी और स्तूप बनाने की प्रथा भी चल पड़ी। नाग-पूजा और अन्य कई उत्सव भी लोग मनाने लगे।
इस प्रकार समाज में कुछ परम्पराओं ने जन्म ले लिया।
कर्त्तव्य-बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभ राज्य करने लगे। बहुत लम्बे समय तक वे राजा रहे । जीवन के अंतिम भाग में वे राज्य त्यागकर मुनि बने । मोक्ष धर्म का प्रवर्तन हुआ। हजार वर्ष की साधना के बाद भगवान् ऋषभ को कैवल्य-लाभ हुआ। साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका-इन चार तीर्थों की स्थापना की। मुनि-धर्म के पांच महाव्रत और गृहस्थ-धर्म के बारह व्रतों का उपदेश दिया। साधु-साध्वियों का संघ बना । श्रावक-श्राविकाएं भी बनीं। साम्राज्य-लिप्सा
भगवान् ऋषभ कर्मयुग के पहले राजा थे। अपने सौ पुत्रों को अलग-अलग राज्यों का भार सौंप वे मुनि बन गए। सबसे बड़ा पुत्र भरत था । वह चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था। उसने अपने १८ भाइयों को अपने अधीन करना चाहा। सबके पास दूत भेजे । १८ भाई मिले । आपस में परामर्श कर भगवान ऋषभ के पास पहंचे। सारी स्थिति भगवान ऋषभ के सामने रखी। दुविधा की भाषा में पूछा-'भगवन् ! क्या करें ? बड़े भाई से लड़ना नहीं चाहते और अपनी स्वतंत्रता को खोना भी नहीं चाहते। भाई भरत ललचा गया है। आपके दिये हये राज्य को वह हमसे वापस लेना चाहता है। हम उससे लड़ें तो भ्रात-युद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी। बिना लड़े राज्य सौंप दें तो साम्राज्य का रोग बढ़ जाएगा। परमपिता ! इस दुविधा से उबारिये।' ।
__ भगवान् ने कहा-'पुत्रो ! तुमने ठीक सोचा। लड़ना भी बुरा है और क्लीव होना भी बुरा है। राज्य दो पैरों वाला पक्षी है । उसका मजबूत पैर युद्ध है। उसकी उड़ान में पहले वेग होता है, अन्त में थकान । वेग में से चिनगारियां उछलती हैं । उड़ाने वाले लोग उसमें जल जाते हैं। उड़ने वाला चलता-चलता थक जाता है। शेष रहती है निराशा और अनुताप ।
'पुत्रो ! तुम्हारी समझ सही है। युद्ध बुरा है-विजेता के
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