Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ क्षमा की प्रतिमूर्ति स्कन्दकसूरि का चरित्र करके, निन्दा की। श्री स्कन्दक कुमार ने समस्त तर्कों का उत्तर देकर उसे निरुत्तर कर दिया। पालक को राज्य सभा में अपना अपमान दुःखद प्रतीत हुआ परन्तु वहाँ वह करता भी क्या? (३) राजकुमार स्कन्दक ने पालक के साथ धर्म की चर्चा बहुत की परन्तु उसे विचार हुआ कि 'वह ज्ञान किस प्रयोजन का जो हमारा उदार न कर सके? मैं जैन धर्म के संयम की अद्भुत बातें भले ही करूँ परन्तु यदि मैं संयम का पालन न कर तो उसका क्या प्रभाव होगा? राजमहल में रह कर सदा भोगों में लीन रहने से थोड़े ही विरतिसुख प्राप्त होता है? विरति-सुख तो नंगे सिर, नंगे पैर पाद-विहार करने वाले मुनि ही प्राप्त कर सकते हैं।' अत्यन्त उग्र पाप अथवा पुण्य संकल्प का तुरन्त फल प्राप्त होता है - इस प्रकार स्कन्दक यह विचार कर रहा था कि वन-पालक ने समाचार दिया, ‘राजकुमार! जगतीतल को पावन करते हुए श्री मुनिसुव्रत स्वामी का उद्यान में पदार्पण हुआ है।' राजकुमार को अत्यन्त हर्ष हुआ और वे सपरिवार भगवान को वन्दन करने के लिए उद्यान में आये। . जिनेश्वर भगवान की देशना अर्थात् त्रिकालदर्शी भगवान की वाणी । वे तो सबकी विचारधारा से अवगत होते हैं। उन्होंने तुरन्त स्कन्दक के परिणाम जान लिये और देशना में कहा, 'कल्याण के दो मार्ग हैं - साधुधर्म और श्रावकधर्म । पुरुष-सिंहों का मार्ग प्रथम साधु-मार्ग है।' स्कन्दक के हृदय में भावना तो पूर्व से ही थी। अतः उसको उसमें भीगने में समय नहीं लगा। उसने माता-पिता से संयम ग्रहण करने की अनुमति माँगी। माता-पिता ने उसे कहा, 'तु हमारा इकलौता पुत्र है। इस विशाल राज्य, इस वैभव और समस्त सुख का केन्द्र-बिन्दु तु ही है।' स्कन्दक कुमार भव से भयभीत था । उसे तो संसार में व्यतीत होने वाला अमूल्य क्षण मिट्टी में मिलता प्रतीत हो रहा था। वह भगवान की शरण में पहुँचा और उसने अपने पाँच सौ मित्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये पाँचसौ मित्र स्कन्दक के शिष्य बने । स्कन्दक अणगार भगवान् के साथ पाँचसौ शिष्यों सहित तप, जप, ज्ञान रूप संयम में भावित होकर धरा पर विचरने लगा। कुछ समय के पश्चात् भगवान मुनिसुव्रत

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143