Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 24
________________ १३ अडिग धैर्य के स्वामी अर्थात् गजसुकुमाल मुनि (२५) अडिग धैर्य के स्वामी अर्थात् गजसुकुमाल मुनि कस के वध के पश्चात् द्वारिका में आकर बसे हुए यादवों का सोलहों कलाओं में विकास हुआ, उन्होंने अपनी सम्पत्ति की अत्यन्त वृद्धि से और द्वारिका अलकापुरी से ईर्ष्या करने जैसी हो गई, परन्तु कुछ ही समय में जरासंध को इस बात का पता लग गया। उसने श्री कृष्ण एवं यादवों को झुकाने के लिए प्रयाण किया, परन्तु बीच में घमासान युद्ध हुआ। जरासंध मारा गया और श्रीकृष्ण वासुदेव बने। श्री कृष्ण की तीनों खण्ड़ों में अखण्ड आन थी। श्री नेमिनाथ भगवान जो उनसे अधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी थे, वे कदाचित् उन्हें पराजित करके राज्य ले लेंगे - ऐसी श्री कृष्ण के मन में शंका थी, परन्तु नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण कर लेने से उक्त शंका भी निर्मूल हो गई थी। द्वारिका में सर्वत्र शान्ति, प्रेम, आनन्द एवं सुख था। देवकी अपने पुत्र श्री कृष्ण को प्राप्त, यश एवं तेज से हर्षित होती और ‘एकेनाऽपि सुपुत्रेण सिंही स्वपीति निर्भयम्' अर्थात् एक पुत्र से भी शेरनी निर्भीक होकर सोती है, इस प्रकार वह अपने मन में अनुभव करती थी। (२) मध्याह्न का समय था। सूर्य की किरणें द्वारिका के करोड़पतियों के महलों पर लगे स्वर्ण-कलशों में प्रतिबिम्बित होकर तेज में वृद्धि करके पृथ्वी को उष्णता प्रदान कर रही थी। उस समय दो मुनि-युगल 'धर्मलाभ' कह कर देवकी के घर पर आये। देवकी ने खड़ी होकर उनका अभिवादन किया और उन्हें लड्डुओं की भिक्षा प्रदान की । मुनि-युगल भिक्षा लेकर चला गये, परन्तु उनके मुखारविन्द एवं कान्ति का देवकी बहुत समय तक स्मरण करते हुए स्तब्ध खड़ी रही । उनकी चाल एवं कान्ति श्री कृष्ण की चाल एवं कान्ति के समान प्रतीत हुई। श्री कृष्ण को देखकर जो वात्सल्य भाव देवकी में उत्पन्न होता, इन दोनों मुनियों को देखकर देवकी को वैसेही वात्सल्य भाव का अनुभव हुआ। कुछ समय तक वह विचार-मान रही और, उसकी इच्छा उन्हें यह

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