________________
सचित्र जैन कथासागर भाग- २ श्रीमती वहाँ से भाग कर अपने पिता के घर आ गई और सिसक-सिसक कर रोती हुई बोली, 'हाय ! मैं क्या करूँ ? मार्ग में हमें चोर मिले। उन्होंने मुझे पीटा और जव मेरे पति ने उन चोरों का सामना किया तो उसे भी उन्होंने पीटा और वे उसे कहीं लेकर चले गये। हाय! अब मैं क्या करूँ ?'
माता-पिता और सखियों ने उसे सान्त्वना देकर शान्त किया। समय व्यतीत होता
रहा ।
६६
(२)
कुँए में से विजय बल लगा कर धीरे धीरे ऊपर चढ़ता हुआ कुँए के बाहर आया और तत्पश्चात् वह अपने नगर में आ गया।
पिता ने पूछा, 'पुत्र! अकेला क्यों आया? बहू क्यों नहीं आई?'
पुत्र ने उत्तर दिया, 'इस समय उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। कुछ समय के पश्चात् वह आयेगी । '
समय व्यतीत होता गया परन्तु विजय अपनी पत्नी को लाने के लिए कुछ कहता नहीं और यदि कोई कहता है तो वह उस पर तनिक भी ध्यान न देकर उसकी अवहेलना करता ।
कुछ समय के पश्चात् माता-पिता की मृत्यु हो गई । विजय घर का स्वामी बन गया। मित्रों ने प्रेरणा दी, 'भले आदमी! पत्नी के बिना तो कोई घर-संसार चलता होगा ? पत्नी के साथ मन-मुटाव कितने समय तक ? जा उसे ले आ ।'
विजय ससुराल गया । सास-ससुर ने उसका सत्कार किया और विजय को मार्ग में लूटे जाने की बात पूछी। विजय ने उन्हें उत्तर देकर शान्त किया और कहा, 'जीवन यात्रा है, कभी कभी लुट भी जाते हैं, जीवन शेष था तो यच गया आपको मिला ।'
शुभ दिन देख कर विजय वर्धन अपनी पत्नी श्रीमती को लेकर अपने नगर आया । अब वह पहले जैसी श्रीमती नहीं रही थी। वह अब समझदार हो गई थी। अतः वह अपने घर में स्थिर होकर रही और क्रमशः वह चार पुत्रों की माता बनी।
(३)
अब श्रीमती प्रौढ़ हो गई । विजय भी अव वृद्ध हो चला है। उसके घर में चार पुत्र एवं पुत्र वधुएँ हैं ।
एक से अधिक मनुष्य होने पर स्नेह की वृद्धि होती है उसी प्रकार क्लेश की भी वृद्धि होती है । उस तरह श्रीमती का भी कभी-कभी पुत्रवधुओं के साथ झगड़ा हो जाता । झगडा उग्र रूप पकड़े इतने में विजय आकर कहता, 'बोलने की अपेक्षा नहीं बोलना श्रेष्ठ है । '