Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 119
________________ १०८ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ कौन सा पाप है? हिंसा में ही समस्त पापों का समावेश होता है । कालदण्ड! तुझे विचार आता होगा कि कुल-परम्परा की हिंसा का मैं त्याग कैसे करूँ? तो मैं तुझे पूछता हूँ कि तू अपने पिता को जो रोग हुए हों, तू उन परम्परा के रोगों को छोड़ना चाहता है अथवा नहीं? परम्परा के इन रोगों को तू छोड़ने को तत्पर है और रोगों से भी भयंकर हिंसा-युक्त कुल-परम्परा को छोड़ने में तू हिचकिचाता है उसमें केवल भ्रम ही कारण है न? ये रोग तो इस जन्म में दुःखदायी हैं, जबकि हिंसा तो भव-भव में दुःखदायी है। उसका परित्याग करने में तू इतना क्यों हिचकिचा रहा है? कालदण्ड! ये देव आदि भाग्य से अधिक कुछ भी प्रदान नहीं कर सकते और जिसका भाग्य प्रवल हो उसका रूठा हुआ देव भी कुछ नहीं कर सकता। अतः अन्य समस्त देवों को छोड़ कर अपनी शुद्ध अन्तरात्मा को देव समझ और उसकी साधना कर | यदि यह अन्तरात्मा सच्चे रूप में सिद्ध कर ली तो पग-पग पर जीव को सम्पत्तियाँ अपने आप प्राप्त हो जायेगी। कतिपय व्यक्ति पुत्र, पत्नी आदि के कल्याणार्थ देव-देवियों के समक्ष बलि चढ़ा कर उनकी आराधना करते हैं, परन्तु यह सव अनुचित है। इस संसार में किसके पुत्र और किसकी स्त्रियाँ अन्त तक स्थायी रही हैं? और उनसे किसका कल्याण हुआ है ? उत्तम मनुष्य तो जीवदया के लिए उनका त्याग करने में भी नहीं हिचकिचाते । क्षत्रिय तो अशक्त प्राणियों के रक्षकों को कहा जाता है। अशक्त का वध करने वाले तो वधिक कहलाते हैं, क्षत्री नहीं। हिंसा अत्यन्त भयंकर है। यदि जीवन में वह एक यार भी अल्प प्रमाण में ही प्रविष्ट हो गई तो जीव को अनेक भवों में भटका कर उसका अधःपतन कर डालती है। कहा भी है कि - आस्तां दूरे स्वयं हिंसा हिंसालेशोऽपि दुःखदः । न केवलं विषं हन्ति, तद्गन्धोऽपि हि दुःखदः।। जीव की हिंसा तो दूर रही परन्तु उसका तनिक छींटा भी अत्यन्त दुःखद होता है। विष यदि खाने में आ जाये तो तो वह मार डालता है, परन्तु यदि खाने में न आये तो भी केवल उसकी गन्ध ली हो तो भी वह जीव को आकुल-व्याकुल कर देती है। कालदण्ड! हिंसा कितनी भयंकर होती है उसे खोजने के लिए तुझे अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है । तेरे हाथ में जो पिंजरा है और उसमें जो मुर्गा और मुर्गी है उन्होंने सामान्य हिंसा की थी जिसके फल स्वरूप उन्हें कैसे कष्ट सहन करने पड़े हैं, वह यदि तु जान ले तो तू हिंसा करने की इच्छा भी कदाचित ही करेगा। कालदण्ड ने कहा, 'भगवन! इस मुर्गे और मुर्गी ने ऐसी क्या हिंसा की थी? और इन पर ऐसे कैसे कष्ट आये जिन्हें सुनकर मेरा हृदय काँप उठे?' मुनिवर ने कहा, 'कालदण्ड! यह मुर्गा आज से सातवें भव में तेरा यशोधर राजा था और यह मुर्गी उसकी माता चन्द्रमती थी। उप्तने एक वार केवल आटे का मुर्गा

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